Thursday, October 2, 2008

मुद्दा : सफलता से दूर सर्व शिक्षा अभियान

मुद्दा : सफलता से दूर सर्व शिक्षा अभियान

प्रवीण कुमार
वित्त मंत्रालय और योजना आयोग लगातार इस प्रयास में है कि सर्व शिक्षा अभियान के भारी भरकम खर्चे का ज्यादा बोझ राज्य सरकार उठाएं, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना दूर–दूर तक नहीं दिख रही। साथ ही यह खतरा भी मंडरा रहा है कि सर्व शिक्षा अभियान के दायरे को प्राथमिक शिक्षा से बढ़ाकर माध्यमिक शिक्षा तक करने का जो प्रस्ताव फिलहाल कैबिनेट के पास विचाराधीन है, उस पर भी कहीं आंच न आ जाए। दरअसल सर्वशिक्षा अभियान इन दिनों वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। बगैर वित्तीय व्यवस्था सुदृढ़ किये प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में ही इसका लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है, ऐसे में इसका दायरा बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं। फिर राज्य और केंद्र के बीच इस अभियान के खर्चे को लेकर एक मत की स्थिति अब तक नहीं बन पाई है। अभी इस अभियान के लिए केंद्र 65 और राज्य 35 प्रतिशत धन मुहैया करा रहा है। केंद्र 12वीं योजना 2012–19 में अपनी हिस्सेदारी घटा कर 25 फीसद करना चाहता है। किंतु राज्यों खासकर बिहार जैसे राज्यों की हालत देखते हुए यह संभव नहीं दिखता। केंद्र की मंशा तो 11वीं योजना में ही राज्य और केंद्र का अंशदान 50–50 प्रतिशत करने की थी किंतु राज्य सरकारों के संसाधनों की कमी के तर्क के कारण केंद्र को अंतत: झुकना पड़ा। आगे भी केंद्र को झुकना पड़े इसमें आश्चर्य नहीं, किंतु सवाल यह है कि केंद्र अगर योजना को मजबूरी की तरह चलाए और वित्तीय व्यवस्था के लिए केंद्र और राज्य इसी तरह नोंकझोंक करते रहें तो योजना के उद्देश्यों का क्या होगा?केंद्र विश्व की सबसे बड़ी इस योजना की शुरूआत कर वाहवाही भले लूटने पर अमादा हो किंतु सच्चाई यही है इस योजना के प्रति उसके सम्मान में इधर लगातार कमी आई है। फिर केंद्र वैश्विक बाजार की ताकतों के आगे नतमस्तक है। शिक्षा के मौलिक अधिकार और समान स्कूल प्रणाली की बातों को छोड़कर अब वह निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने की बात अधिक कर रहा है। केंद्र ने जिस जोर-शोर से इस अभियान की शुरूआत की थी, उतनी ही तेजी से वह अब उधर से लापरवाह हो रहा है। निजी क्षेत्र के प्राथमिक शिक्षा में बढ़ते दखल ने इस अभियान को कमजोर किया है, इसमें कोई दो राय नहीं। सरकार ने 2008–09 के वित्तीय वर्ष के वित्तीय बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए जो 13100 करोड़ रूपए आवंटित किये हैं, वे पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 71 करोड़ रूपए कम हंै। गौर करने वाली बात है कि इसी दौरान माध्यमिक शिक्षा के बजट में 2. 8 गुणा की वृद्धि की गई है। इसका अर्थ यही निकाला जा सकता है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को या तो कम करके आंक रही है या इसे पूरा मान कर चल रही है। सरकार की आंखें खोलने के लिए यह आंकड़ा काफी है कि 6 से 14 आयु वर्ष के आधे से अधिक बच्चे अभी भी स्कूल नहीं जाते। करीब 40 लाख बालिकाओं ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत दाखिला ही नहीं लिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशन, प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन यानी न्यूपा का सर्वेक्षण बताता है कि देश में 32 हजार स्कूल ऐसे हैं जिनमें एक भी छात्र नहीं हैं और इनमें से 23 हजार स्कूलों में छात्र इसलिए स्कूल नहीं जाते क्योंकि वहां शिक्षक नहीं है। न्यूपा के ही एक आंकड़े के अनुसार देश के एक लाख 30 हजार स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे हैं। यानी इस अभियान की राह में शिक्षकों की कमी भी एक बड़ी बाधा है। फिर जो शिक्षक हैं भी वे शिक्षाकर्मी, शिक्षामित्र जैसे नामों से जाने जाते हैं। इनकी नियुक्तियां तदर्थ या कामचलाऊ तौर पर की जाती हैं। योग्यता में सामान्य शिक्षकों की हैसियत रखते हुए भी इन्हें कम वेतनमान पर गुजारा करना होता है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य जहां 85 हजार शिक्षाकर्मी हैं, में इनका वेतन केवल हजार रूपए प्रति महीना है। 2008–09 के बजट पर गौर करें तो साफ है कि देश में सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत अब तक करीब 8 लाख 80 हजार शिक्षकों की नियुक्ति हुई है जबकि लक्ष्य करीब 11.5 लाख शिक्षकों की नियुक्ति का था। इनमें से करीब 36 हजार शिक्षकों को 2007–08 के दौरान 20 दिनों के प्रशिक्षण का लक्ष्य रखा गया था किंतु करीब 65 प्रतिशत ही लक्ष्य हासिल हो पाया। किताबों के वितरण, पेयजल की व्यवस्था, शौचालय का इंतजाम, पेयजल की व्यवस्था आदि क्षेत्रों में भी हमें पूरा लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। दरअसल सरकार योजनाएं तो बनाती है किंतु उसे सफल बनाने का दायित्व पूरा करना नहीं चाहती। सरकार के खर्च अन्य मदों में बढ़ते गए किंतु शिक्षा के क्षेत्र में कोठारी कमीशन की तय सीमा- सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 6 प्रतिशत- से यह नीचे ही रही।
source-[ 9/29/2008 12:04:05 AM] rastriya sahara

LOST CHILDHOOD

Monday, September 22, 2008

बेटियों के बिना दुनिया कैसी होगी


बेटियों के बिना दुनिया कैसी होगी
स्त्री-विहीन दुनिया कैसी होगी? इस सवाल को सार्वजनिक करते हुए हम उन आंकड़ों को देख सकते हैं, जो हाल के सर्वेक्षणों से निकल रहे हैं। पुरुष और स्त्री की गिनती में स्त्री वाला पलड़ा हल्का होता जा रहा है, यह संदेश आम लोगों तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा पहुंचाया जा रहा है। क्या इस संदेश से भारतीय नागरिकों के कानों पर जूं तक रेंगी? सामने यही नज़ारा है- भ्रूण हत्या, दहेज दहन या स्त्री हत्या को विभिन्न स्त्री-दोषों से जोड़कर अंजाम दिया जा रहा है। मेरे ख़याल में यह समझने के लिए अब कुछ भी बाकी नहीं बचा कि हमारे समाज में स्त्री का दर्जा क्या है। क्या पशु-पक्षियों को गर्भ में मारा जाता है? क्या उन्हें पैदा होने के तुरंत बाद जिबह कर दिया जाता है? क्या उन्हें डायन या चुड़ैल बताकर हलाक किया जाता है? यदि हमें पशु-पक्षियों से कोई सेवा या आहार प्राप्त करना होता है, तो उन्हें अच्छी से अच्छी खुराक देनी होती है, सुविधाजनक जगह देनी होती है, लेकिन औरत के लिए इसका उलटा नियम चलता है कि खाने, पहनने और रहने की जगह देने में पुरुष व्यवस्था शुरू से ही कोताही करने लगती है। बच्ची गरीब की हो या अमीर की, वह एक बोझ, जिम्मेदारी और पराई अमानत की तरह पिता के घर पलती है। कुदरत की दी हुई लड़की स्त्री-पुरुष के क्रोमोजोम के मिलन का परिणाम है, जिस पर हमारे देशवासियों का बस नहीं। साइंस और टेक्नॉलजी ने जो सुविधा गर्भ में पलने वाले भ्रूण के सामान्य और असामान्य परीक्षण के लिए प्रदान की थी, समाज की पुरुष व्यवस्था उसे लिंग परीक्षण के लिए अलादीन के चिराग के रूप में ले उड़ी। आलम यह है कि परिवार में भले असामान्य बेटा हो जाए, लेकिन सामान्य स्वस्थ लड़की नहीं चाहिए। वैसे इन बातों को हम सभी सच की तरह जानते ही हैं। लेकिन नहीं जानना चाहते उस सूत्र को, जिससे लड़की को मनुष्य के रूप में इतना हेय माना गया है कि उसका जीना बर्दाश्त के बाहर है। यह गजब की नफरत ही उस पर तब से कहर बनकर टूटने लगती है, जब कि वह गर्भ में हाथ-पांव तक नहीं हिला पाती। मगर वह जिंदा बच जाने की अदम्य शक्ति धारण किए रहती है और पैदा हो जाती है। सच मानिए, औरत बनते ही वह मर्द के आकर्षण का केंद्र बन जाती है। जिन प्रदेशों में लड़कियों की संख्या का आंकड़ा न्यूनतम अंक दिखा रहा है, औरतें उन्हें भी चाहिए। वे चाहिए सेवा, श्रम और सेक्स के लिए, वंश के लिए, बेटे पैदा करने के वास्ते। ऐसी औरतें खरीदकर लाई जा सकती हैं। ये ही पासा पलटने के मौके हैं और इनसे अर्थशास्त्र का मांग और पूर्ति का सिद्धांत खरीद-बिक्री को प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। समाज में कन्या वध का सिलसिला ऐसे ही जारी रहा, तो औरतें सोने के भाव बिकने वाली हैं और उनके रत्ती-रत्ती मांस की कीमत लगा करेगी। इसी आधार पर मैं दावे के साथ कहती हूं कि भारतीय माता-पिता लड़कियों को जन्म देना चालू कर देंगे। आखिर ऐसे ही तो तमाम कारण हैं कि माता-पिता लड़की के जन्म से बचना चाहते हैं। शास्त्रों की रीति-नीति पर चलने वाला हमारा समाज जब साइंस और तकनीक को शास्त्रों में घसीट ले गया, तो रूढि़यों की महिमा अपने आप साबित होती है। मनुस्मृति कहती है कि कन्या के रजस्वला होने से पहले ही उसे किसी पुरुष को दान कर दिया जाए। कुंआरी कन्या के समर्पण से माता-पिता को स्वर्ग मिलता है। अत: लड़की को पिता जन्म लेते ही शास्त्रों की नजर से देखने लगता है। इस बदलते समय में बेशक लड़कियों की शिक्षा का विधान है और उसे आर्थिक निर्भरता के लिए छूट भी दी जाती है (थोड़े ही अनुपात में) लेकिन इस आधुनिक व्यवहार पर शास्त्र और परंपराएं फिर शिकंजा कसने लगती हैं। मिसाल के तौर पर, बेटी की कमाई खाने वाला पिता नीच अधम के रूप में नरक में जाता है, क्योंकि पाप का भागी होता है। समाज जीते जी उसे नीची नज़र से देखता है। हमारा मानसिक अनुकूलन (कंडिशनिंग) हमें तर्क की इजाजत नहीं देता कि आखिर ऐसा क्यों होता है? अगर इस विधान की परतें खोली जाएं, तो सच सामने आ जाएगा- क्योंकि पिता कभी भी बेटी की कमाई नहीं खा सकता, इसलिए वह उसका उचित पालन-पोषण क्यों करे? उसे शिक्षा की वैसी ही सुविधा क्यों दे, जैसी बेटे को देता है? पराए घर भेजने के लिए बाध्य पिता अपनी बेटी को जायदाद में से हिस्सा भी क्यों दे? वह विवाह के समय अपनी हैसियत और इज्जत के मुताबिक वर पक्ष को धन-धान्य देता है, जिसे हम दहेज कहते हैं। क्योंकि अब इस लड़की को पति के घर जिंदगी बितानी है, जामाता ने लड़की के पिता का बोझ उतारा है, इसलिए वह पूज्य हुआ। पूज्य व्यक्ति को पिता ने कुंआरी कन्या दी है, यह उसकी अनिवार्य योग्यता है। सच मानिए, इन दोनों पुरुषों के बीच लड़की अपने शरीर से लगे गर्भाशय की अपराधिनी है, जिसको उसे तनी रस्सी पर चलते हुए हर हालत में पवित्र और अनछुआ रखना है। पवित्रता नष्ट होने के शक में उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है। कोई गौर नहीं करता कि इस अपवित्रता में एक पुरुष भी शामिल रहा होगा, वह क्यों मुजरिम नहीं है? यह अच्छी रही कि पहले हकों से खारिज करो, फिर खात्मा आप करें या ससुराल वाले करें। तोहमत लगाने के बहाने तमाम हैं। रूढ़ परंपराओं के तंबू तले हम बेटी बचाओ के नारे किसके लिए लगा रहे हैं? बेटी हमारी ताकत है, लेकिन संपत्ति का अधिकार न देकर हम किस सशक्तीकरण की बात कर रहे हैं? बेटियों को मारने का ग्राफ तो ऊपर ही चलता जा रहा है। मुझे लगता है कोई भी परिवर्तन तब तक कारगर नहीं होता, जब तक कि वह सहज रूप से सामान्य व्यवहार में न आए। पहले हमारा व्यवहार तो बदले। हम अपनी मेंटल कंडिशनिंग से तो आजाद हों। बेटी को सही नजरिए से, बराबरी के नजरिए से जिस दिन हम देखेंगे, यह भयानक संकट दूर हो जाएगा, जो समाज में उथल-पुथल मचा देने वाला है।

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

bhikariyo के प्रति समाज ही नहीं, सरकारों का रवैया भी अछूतों-सा है। इनके सुधार की बनी योजनाएं फ्लॉप हैं। सरकार ने भिक्षावृत्ति पर पाबंदी तो लगाई, किंतु उसने कभी भिखारियों के संबंध में अध्ययन कराना जरूरी नहीं समझा। यही कारण है, सरकार के पास इनकी आबादी तथा सामाजिक ढांचे के संबंध में कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार ने स्वीकार किया कि भिखारियों की संख्या के संबंध में कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। इनके संबंध में सारे अध्ययन गैर सरकारी संगठनों या स्वायत्त निकायों के जरिए ही सामने आए हैं। यह हालत तब है जब दुनिया में सबसे अधिक भिखारी भारत में हैं। यहां प्रत्येक हिस्से की सार्वजनिक जगहों पर ये दिख जाते हैं। जितने अधिक भिखारी बढ़े हैं, उसी अनुपात में भीख मांगने के तरीकों में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। आज के भिखारियों में बहुमत अपंग और बहुत गरीब लोगों की नहीं, बल्कि पेशेवर भिखारियों की है। जो मजबूरन भिखारी बनते हैं, उनके लिए कैसी व्यवस्था की जाए? इस संबंध में सुश्री मीरा कुमार इसे राज्य का विषय बताती हैं। ऐसा नहीं है कि राज्यों ने कुछ प्रयास नहीं किए, किंतु यह अधूरे मन से किए गए हैं। दिल्ली सरकार ने भीख देने वालों पर भी जुर्माने का फैसला किया, फिर भी असर नहीं हुआ। इसी तरह मुलायम सिंह के दौर में उ. प्र. में भिखारियों के सर्वेक्षण और पुनर्वास का निर्णय लिया था। सरकार द्वारा ‘भिक्षुक गृह’ खोले गए, किंतु सड़कों पर भिखारियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। कारण, भिखारियों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था का ठीक न होना था। रोजगार की ठीक व्यवस्था के बगैर भिखमंगों को उनके व्यवसाय से हटाना कतई संभव नहीं है, यह बात सरकार अब भी नहीं समझ रही है। दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क के मुताबिक, दिल्ली में 60 हजार भिखारी हैं। ‘एक्शन एड’ द्वारा चार साल पहले किए गए अध्ययन के मुताबिक मुंबई में तीन लाख भिखारी थे। इसी तरह बेगर रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, कोलकाता में 75 हजार से ज्यादा भिखारी हैं। इन भिखारियों में अपंग, गरीब, शौकिया और हताशा व निजी कुंठाग्रस्त मॉडल गीतांजलि नागपाल तथा आईआईटी इंजीनियर प्रफुल्ल चिपलुणकर जैसे लोग भी हैं! डीएसएसडब्ल्यू की रिपोर्ट बताती है कि कई ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट भिखारी भी हैं। ये अपनी मासिक आय बढ़ाने के लिए केवल सप्ताहांत में भीख मांगना पसंद करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली के 71 फीसद भिखारी गरीबी की वजह से भीख मांग रहे हैं, किंतु 66 प्रतिशत भिखारी शारीरिक रूप से तंदुरूस्त हैं। कई भिखारी तो ऐसे हैं, जो अब भिक्षावृत्ति को मजदूरी के विकल्प के तौर पर या इसे बेहतर मानकर अपनाए पड़े हैं। अध्ययन बताता है कि ज्यादातर भिखारियों की प्रतिदिन की औसत आय 90 रूपये से अधिक है, जो दिहाड़ी मजदूरों की आय से कहीं ज्यादा है। ज्यादातर भिखारी अब अपने काम को लेकर शर्म का अनुभव नहीं करते। वे इस वृत्ति को लाभदायक पेशा मानते हैं। डीएसएसडब्ल्यू और मुंबई के सोशल डेवलपमेंट सेंटर के सर्वेक्षण बताते हैं कि भीख मांगने वाले अब शर्माते नहीं, लेकिन यह अध्ययन पूरी सच्चाई बयान नहीं करते। डॉ. योगेश ठक्कर का अध्ययन कुछ अलग ही तस्वीर सामने लाता है। इसके अनुसार भिखारियों में मनोरोग का पाया जाना आम है। कई तरह की लतों का शिकार होना, अपराध-बोध जैसी समस्याएं भी इनमें खूब देखी जाती हैं। दरअसल, भीख मांगने का काम शौकिया हो या मजबूरी- समाज के लिए मंगतों की मौजूदगी सही तस्वीर पेश नहीं करती। भीख मांगना पारंपरिक रूप से भले ही सम्मानजनक पेशे की तरह भारतीय समाज में मौजूद हो, किंतु आज जीवनयापन का यह तरीका स्वीकार्य नहीं है। ‘भिखारी’ का अर्थ कानून की भाषा में सर्वथा पृथक है। कानून ऐसे व्यक्ति को भिखारी मानता है, जो गरीब जैसा दिखता हो। भिखारियों को अधिकतम दस वर्ष तक भिक्षुक गृहों में डालने का प्रावधान है। अमूमन इस कानून का दुरूपयोग होता है। विरोधी कहते हैं कि इस कानून के जरिए सरकार शहरों से गरीबों के सफाए की मुहिम चलाती है ताकि शहर अमीरों का बना रहे। इस कारण होता यह है कि भिखारियों के खिलाफ चलाए जाने वाले किसी भी अभियान के लपेटे में कूड़ा बीनने वाले से लेकर दिहाड़ी मजदूर तक आते हैं। सरकार को चाहिए कि भिखारियों का एक प्रामाणिक अध्ययन कराए। मजबूरीवश भिखारी बने लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने का कोई ढांचा विकसित करने तथा जो लोग रोजगार के अभाव में इस पेशे को अपनाते हैं, उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करने का प्रयास होना चाहिए। भिक्षुकगृहों में सरकार रोजगार की ट्रेनिंग का पुख्ता बंदोबस्त करे। भिखारियों के मनोविज्ञान का अध्ययन एवं उनके मनोवैज्ञानिक इलाज के उपायों पर भी गौर करना होगा।

Wednesday, September 10, 2008

मुद्दा : धार्मिक संस्थाओं में यौन उत्पीड़न?

केरल के कोल्लम जिले की एक कैथोलिक नन अनुपा मेरी की खुदकुशी ने नयी बहस को जन्म दिया है। 24 वर्ष उम्र की अनुपा की लाश ठाकासेरी के सेंट मेरी कान्वेन्ट में लटकी पायी गयी थी। उसने सुसाइड नोट में लिखा है कि उसे यह कदम इसीलिए उठाना पड़ा, क्योंकि एक वरिष्ठ नन ने उसे मानसिक प्रताड़ना दी थी। दूसरी तरफ अनुपा मेरी के पिता ने बताया कि मुश्किल से दो माह पहले इस कान्वेन्ट में पहुंची अनुपा को उसी कान्वेन्ट की वरिष्ठ नन के हाथों यौन प्रताड़ना झेलनी पड़ी थी और अनुपा ने अपने इन अनुभवों को अपनी मां-बहन को बताया था।ईसाई धर्म प्रचारक समुदाय में इधर के दिनों में यौन स्वच्छंदता के कई मामले सामने आए हैं। पिछले माह ही कोट्टायम के एक जैकोबाइट चर्च के पादरी को एक अवयस्क लड़की से बलात्कार के आरोप में सलाखों के पीछे जाना पड़ा था। दो माह पहले कोच्चि में एक कैथोलिक नन को पद से हटा दिया गया था, जब अस्पताल के ड्राइवर के साथ उसके यौन सम्बन्ध सामने आए थे। राज्य महिला आयोग ने नन बनने की प्रक्रिया के बारे में सरकार के सामने कुछ सुझाव पेश किए थे। केरल देश को सबसे अधिक नन और पादरी उपलब्ध कराता है। कुल 1,02,810 ननों में से 33,226 केरल की हैं। पादरी भी सबसे ज्यादा केरल के हैं।चर्च के एक अन्तरराष्ट्रीय समूह द्वारा किये गये अध्ययन ने रेखांकित किया है कि केरल में पिछले 14 बरसों में 15 ननों ने आत्महत्या की, जो अपने घुटन भरे जीवन से परेशान थीं। यहां भी पुरूषों की तुलना में महिलाओं पर दबाव अधिक हंै। एक ईसाई कार्यकर्ता के. के. थॉमस द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान आयोग ने इन सुझावों को पेश किया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि सरकार द्वारा नन बनने की न्यूनतम आयु निर्धारित होनी चाहिए। उनके मुताबिक, आमतौर पर जब बच्चियां छोटी होती हैं और निर्णय लेने की अवस्था में नहीं होती हैं, तभी उन्हें घरवाले नन बनने के लिए भेज देते हैं। नन बन चुकी लड़कियों का परिवार की सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं रह जाता है। एक तरह से घर की सम्पत्ति से उन्हें बेदखल करने का यह तरीका बनता है। आयोग ने सरकार से कहा था कि ऐसे मां–बाप पर कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए, जिन्होंने बेटी को नन बनने के लिए मजबूर किया है।आयोग ने सरकार से कहा था कि ननों की सम्पत्ति से बेदखली रोकी जाए तथा सरकार ऐसी रणनीति तैयार करे, जिसमें यदि कोई नन वापस आना चाहे, तो उसका पुनर्वास हो सके। वह साधारण पारिवारिक जीवन जीना चाहे, तो उसके अधिकार की रक्षा हो सके। आयोग की अध्यक्ष न्यायाधीश डी श्रीदेवी के मुताबिक, सरकार एक ऐसा व्यापक सर्वे कराये, जिससे पता चल सके कि कितनी बच्चियों को नन बनने के लिए परिवारवालों द्वारा बाध्य किया गया और कितनी ननें सामाजिक जीवन में लौटना चाहती हैं। इनके लिए सरकार की तरफ से पैकेज मुहैया कराया जाए। साफ था कि चर्च के अधिकारियों ने केरल महिला आयोग के सुझावों को गैरजरूरी तथा अपने धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि यह सिर्फ सुझाव हैं, इन्हें मानने या न मानने के लिए हम आजाद हैं। आयोग के सुझावों ने केरल में बवंडर खड़ा किया था।वैसे महिलाओं को न्याय दिलाने के प्रति आनाकानी करने में सिर्फ केरल के चर्च ही जिम्मेदार नहीं है। सभी धर्मों में इसी किस्म की आनाकानी रवैया दिखता है। हिन्दू, मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं या अन्य धर्म भी बेहतर नहीं हैं। जैन धर्म में भी किशोरियों को साध्वी बनाने की परम्परा है। ऐसी साध्वी बनाने का संकल्प लेनेवाली लड़कियों को काफी महिमामंडित किया जाता है और बाकायदा जुलूस के साथ उनकी विदाई की जाती है। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वहां पर एक बार साध्वी बनी लड़की के लिए वापसी मुश्किल रहती होगी। लोगों को याद होगा कि पिछले साल महाराष्ट्र के एक आश्रम से इसी तरह एक साध्वी के चले जाने का समाचार मिला था, जो अपने पुराने मित्र के साथ कहीं चली गयी थी। हिन्दुओं में जितनी बड़ी संख्या में बाबाओं–साध्वियों का आगमन हुआ है, उनमें से कई इसी तरह महिलाओं को अपने आश्रम में साध्वी बनाते हैं। उत्तर भारत के एक चर्चित संत जिनकी पंजाब–हरियाणा तथा आसपास के सूबों की मुख्यत: दलित जातियों में गहरी पकड़ है, के आश्रम की साध्वी ने इन ‘महात्मा’ के यौन अत्याचारों के किस्के बयां कर सीबीआई को पत्र भी लिखा था, जिसकी जांच चल रही है। क्या उम्मीद करें कि अनुपा की अस्वाभाविक मौत तमाम सवालों पर न्यायसंगत फैसला लेने का रास्ता सुगम करेगी?

Wednesday, July 30, 2008

मुद्दा : तेजाबी हमले पर सख्त सजा जरूरी

मुद्दा : तेजाबी हमले पर सख्त सजा जरूरी

अंजलि सिन्हासरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि उसने तेजाब फेंकने के अपराध के खिलाफ सख्त सजा वाले कानून में संशोधन का मसविदा तैयार कर लिया है तथा उस पर सभी राज्यों की मंजूरी भी ले ली है। मालूम हो कि गतवर्ष सुप्रीम कोर्ट में एक नाबालिग लड़की पर तेजाब फेंकने की घटना की सुनवाई चल रही थी। इसी दौेरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बर्बर अपराध पर चिन्ता व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय महिला आयोग से इस अपराध पर रिपोर्ट मांगी थी। आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी उसमें बताया था कि कैसे हमारे देश में यह अपराध बढ़ा है जो पीड़ित की पूरी जिन्दगी बर्बाद कर देता है। आयोग ने यह भी स्वीकारा था कि मौजूदा कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हंै। वर्तमान में आईपीसी की धारा 326, जो गम्भीर रूप से घायल करने के मामले में लागू होती हैै, उसके अन्तर्गत यह केस दर्ज होता है। आयोग ने विधि आयोग से प्रभावी कानून बनाने पर विचार करने करने के लिये सिफारिश की थी। राज्य सरकारों ने धारा 326 के साथ 326 अ जोड़ने की बात कही है जिसमें तेजाब फेंकने वाले को न्यूनतम सजा सात साल की हो। लेकिन महिला आयोग ने न्यूनतम सजा 10 साल और अधिकतम उम्रकैद की सिफारिश की है तथा पीड़ित को एक लाख रूपये मुआवजे की बात सुझायी है। खुले बाजार में तेजाब की बिक्री पर रोक लगाने की भी सिफारिश की गयी है लेकिन इस के लिये राज्य सरकारें सहमत नहीं हंै। तेजाब खुले बाजार में उपलब्ध हो या उसे नियंत्रित किया जाय इसके लिये दोनों ही प्रकार की दलीलें दी जा सकती हंै। अपराधों की बढ़ती घटनाओं पर रोक के मद्देनजर बिक्री को नियंत्रित करना भी एक उपाय हो सकता है लेकिन हमारे देश में गैर कानूनी चीजें इस्तेमाल करने वाला किसी तरह से जुगाड़ कर ही सकता हैं । इसलिये प्रमुख मुद्दा यही बनता है कि महिलाओं के खिलाफ किसी भी प्रकार की हिंसा क्यों हो ? यदि किसी को असहमति हो या किसी को कोई व्यवहार मान्य न हो तो भी हिंसा की इजाजत नहीं हो सकती है। तेजाब फेंकने के अधिकतर कारणों में यही पाया गया है- लड़की द्वारा प्रेम या शादी से इनकार या शक। कुछ मामले में संपत्ति विवाद भी होता है।एसिड हमले की परिघटना सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे मुल्कों के अलावा आसपास के कई देशों से इस किस्म के समाचार मिलते रहते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश में एसिड फेंकने की घटनायें बढ़ी हैं। 90 के दशक के पहले के सालों में जहां ऐसे हमलों की संख्या दर्जन से पचास के बीच थी वहीं बाद के वर्षों में यह आंकड़ा तीन सौ के करीब पहुंचा। और जहां तक सजा दिए जाने का सवाल था तो ऐसी स्थितियां न के बराबर थीं। वहां सक्रिय सामाजिक संगठनों के मुताबिक एसिड फेंकने के निम्न कारण दिखते हैं: शादी से इनकार, दहेज, पारिवारिक झगड़ा, वैवाहिक तनाव, जमीन विवाद या कुछ राजनीतिक कारण। तेजाब न सिर्फ चमड़ी जलाता है बल्कि हड़िडयों तक को गला देता है तथा शरीर को कमजोर कर देता है। पीड़ित की देखने-सुनने की क्षमता भी बुरी तरह प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी खत्म कर देता है, लिहाजा कोई भी संक्रमण तथा बीमारी उसे जल्दी पकड़ लेती है जो जानलेवा भी हो जाता है। तेजाब के चपेट में आये लोगोंं का इलाज हर जगह, हर अस्पताल में सम्भव नहीं होता है तथा वह बहुत महंगा भी होता है। इसके साथ सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि पीड़ित को अपने समाज का तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। पीड़ित देखने में चूंकि असामान्य तथा ‘बदरंग’ हो जाते हैं इसलिये लोग उनसे सहज सम्बन्ध नहीं बनाते हैं। वे अपने पूरे परिवार तथा समाज में उपेक्षित बन जाते हैं। कई शहरों में तेजाब पीड़ितों ने आपस में एकता कायम की है। मुम्बई तथा बेंगलुरू में बाकायदा तेजाब पीड़ितों ने अपना संगठन भी बनाया है और वे अपने अधिकारों के लिए तथा एक–दूसरे को सहायता करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी एकता का आधार और कुछ नहीं सिर्फ हमले का एक प्रकार का होना है। ‘बर्न सर्वाइवर ग्रुप ऑफ इण्डिया’ ऐसा ही एक समूह मुम्बई में है। इस प्रकार हम देखते हंै कि यह अपराध पूरी मानवता के सामने एक भयावह चित्र खींचता है। ऐसे में इस अपराध पर नियंत्रण के लिये सख्त कानूनी उपायों का आना स्वागत योग्य है। किन्तु अभी भी समाधान सिर्फ इतने से नहीं निकलेगा। हमें यह भी विचार करना होगा कि आखिर स्त्री समुदाय के खिलाफ ऐसे अपराध क्यों होते हंै? क्यों ऐसी मानसिकता बनी जिसमें पुरूष औरत को अपने मातहत, अपनी इच्छा के अनुरूप पाना चाहता है और वह इच्छा किसी भी तरह से पूरी होनी चाहिये। अस्वीकार को सहन करना उसकी मजबूरी क्यों नहीं बन पाती? समाज में हिंसा जो परतें मौजूद हैं, उसमें तेजाब फेंकने की हिंसा को सबसे क्रूरतम हिंसा के दर्जे में रखा जाता है। ऐसे अपराध करने वालों को कठोर सजा मिलना जरूरी है, तभी इस क्रूर हिंसा पर काबू पाया जा सकता है।

Thursday, July 24, 2008

क्या साथ रहना शादी के बराबर है


महिलाओं के इम्पावमरमेंट के लिए लगातार कानून बन रहे हैं। भारतीय समाज में महिलाओं की जो दशा रही है, उसे देखते हुए इनकी जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह कोशिश संतुलित होनी चाहिए। देखा गया है कि अच्छे मकसद से बनाए गए कुछ कानून समाज को तोड़ने वाले साबित हो रहे हैं। दहेज़ कानून के गलत इस्तेमाल पर काफी चर्चा हो चुकी है। घरेलू हिंसा से महिलाओं के बचाव के कानून पर भी सवाल उठने लगे हैं। अब राष्ट्रीय महिला आयोग की इस सिफारिश पर विवाद शुरू हो गया है कि सीआरपीसी की धारा 125 में सुधार किया जाए, ताकि किसी पुरुष के साथ लंबे समय तक सहजीवन करने वाली महिला को भी पत्नी की तरह गुज़ारा भत्ता मिल सके। अभी इस धारा के तहत केवल पत्नी, बच्चों और मां-बाप को यह हक हासिल है। आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि अलग हुई या तलाकशुदा महिलाओं को भी नए शारीरिक संबंध बनाने के आधार पर गुजारा भत्ते से वंचित नहीं किया जाए। आयोग का कहना है कि तलाक के 70 फीसदी मामलों में महिलाओं पर ऐसे आरोप लगाए जाते हैं, ताकि उन्हें गुजारा भत्ता न देना पड़े। सहजीवन के आधार पर गुज़ारा भत्ता देने की सिफारिश के पीछे तर्क यह है कि घरेलू हिंसा कानून में इसे मान्यता दी गई है और इसके साथ अन्य कानूनों को सुसंगत बनाना जरूरी है। घरेलू हिंसा कानून में पत्नी के साथ-साथ वैसी महिला को भी सुरक्षा दी गई है जो किसी पुरुष के साथ लम्बे समय से रह रही हो। सहजीवन की अवधारणा कोई नई नहीं है और बहुत हद तक कानूनों में भी इसे मान्यता प्राप्त है। सन 1927 में ही प्रिवी काउंसिल ने ए. डिनोहैमी बनाम डब्ल्यू.ए. ब्लैहैमी मामले में यह व्यवस्था दी थी कि अगर एक महिला किसी पुरुष के साथ प्रामाणिक तौर पर पत्नी की तरह रह रही है, तो कानून उसे वैवाहिक रिश्ते की तरह ही मानेगा, रखैल की तरह नहीं, जब तक कि सबूत इसके खिलाफ न हों। दो साल बाद इससे आगे बढ़ते हुए काउंसिल ने मोहब्बत अली बनाम मोहम्मद इब्राहिम खान केस में स्पष्ट निर्णय दिया कि यदि कई बरसों तक स्त्री-पुरुष साथ रह रहे हों तो कानून की नजर में वह विवाह माना जाएगा। परंतु इसमें यह साफ नहीं है कि इसके लिए न्यूनतम कितने बरसों का साथ जरूरी है। इसके 23 बरस बाद 1952 में सुप्रीम कोर्ट ने गोकल चंद बनाम प्रवीण कुमारी केस में प्रिवी काउंसिल की व्यवस्था को दोहराया, परंतु यह जोड़ दिया कि यदि सहजीवन का प्रमाण खंडन योग्य है तो सहजीवन की वैधता की कोई गारंटी नहीं होगी। फिर 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने बदरी प्रसाद मामले में सहजीवन को वैध विवाह की मान्यता दी और उन अफसरों को कोसा जिन्होंने 50 बरसों से साथ रहे दंपती के रिश्ते पर सवाल खड़े किए। गत 17 जनवरी को कोर्ट ने फिर ऐसी ही व्यवस्था दी। यह आज की हकीकत है कि सहजीवन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। और संबंध विच्छेद होने पर स्त्रियों को परेशानी भी काफी उठानी पड़ती है। इसलिए 2002 में सविताबेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में सुधार की सिफारिश की थी। भारतीय उत्तराधिकार कानून में भी अवैध बच्चों को अधिकार दिया गया है, परंतु स्त्री को नहीं। लेकिन सहजीवन को कानूनी मान्यता देना वर्तमान कानूनों के खिलाफ जाएगा। घरेलू हिंसा कानून में इसे मान्यता देने का मतलब इसे वैधता देना नहीं है, क्योंकि वहां मकसद महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकना है, चाहे वे पत्नी हों या केवल साथ रह रही हों। इसलिए यह तर्क सही नहीं लगता कि अन्य कानूनों का घरेलू हिंसा कानून के साथ तालमेल बिठाया जाना चाहिए। हिन्दू विवाह अधिनियम में किसी हिन्दू की एक से ज्यादा शादियों को अवैध करार दिया गया। काफी विरोध के बीच यह कानून बना था। फिर भी ऐसे मामले कम नहीं हैं, जहां पुरुष एक से ज्यादा शादियां करते हैं। इसे चैलंज करने का हक सिर्फ वैध पत्नी को है, लेकिन बहुत सी महिलाएं समाज और परंपरा के नाम पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटातीं। ऐसे में अगर सहजीवन में भी गुज़ारा भत्ते का प्रावधान कर दिया गया, तो यह विवाहेतर संबंध को मान्यता देने की तरह होगा। पुरुष निडर होकर ऐसे रिश्ते बनाने लगेंगे और सामंती युग लौट आएगा। इससे विवाह की संस्था पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी। सहजीवन वैसे लोग पसंद करते हैं जो गृहस्थी या सेक्स का सुख तो चाहते हैं, लेकिन उससे जुड़ी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। यह सही है कि वयस्क पुरुष और स्त्री को यह फैसला करने का हक है कि वे विवाह के बंधन में बंधकर साथ रहना चाहते हैं या उसके बिना उन्मुक्त होकर। महान फ्रांसीसी लेखक ज्यां पॉल सार्त्र और महिलावादी लेखिका सिमोन द बुआ ने शादी की जगह सहजीवन को ही चुना। अभी मारिया गोरेट्टी, कमल हासन, सुष्मिता सेन, विक्रम भट्ट, लारा दत्ता जैसी मशहूर हस्तियां इसका उदाहरण हैं। लेकिन परंपराओं को तोड़ने वाले गुजारा भत्ते के मामले में परंपरावादी क्यों हो जाते हैं? अब सहजीवन को वे महिलाएं चुन रही हैं जो आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर नहीं हैं। सहजीवन का प्रचलन पश्चिम में दूसरे वर्ल्ड युद्ध के बाद शुरू हुआ। इसकी वजह थी युद्ध की भयावहता से मजबूत विक्टोरियन मूल्यों का टूटना। युद्ध से पीड़ित लोगों ने सेक्स और भौतिक सुख को स्वच्छंद रूप से अपना लिया। कई लोगों को लगा कि बिना शादी साथ रहना सुविधाजनक और किफायती है। उनके लिए एक कानूनी बंधन के रूप में शादी की कोई अहमियत नहीं थी। भारतीय समाज ने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि यहां विवाहपूर्व सेक्स आज भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन आज भारत में भी सहजीवन बढ़ रहा है। इसके उलट पश्चिमी देशों में अब 'बैक टु बेसिक्स' की बात की जा रही है और भारत की नज़ीर पेश की जाती है। अमेरिका से प्रकाशित 'द जर्नल ऑफ मैरिज एंड द फैमिली' ने अपने अध्ययन में पाया कि गैर-पारम्परिक रिश्तों में समस्याएं काफी ज्यादा होती हैं। जब अमेरिका की यह स्थिति है तो भारत की कल्पना की जा सकती हैं।

Tuesday, July 22, 2008

मुद्दा : बलात्कार पीड़ित की मदद पर उठे सवाल

मुद्दा : बलात्कार पीड़ित की मदद पर उठे सवाल
आर्यसरकार की आ॓र से दंगा पीड़ित, प्राकृतिक आपदा पीड़ित,बांध विस्थापित व ‘सेज’ से प्रभावित लोगों के लिए मुआवजा देने की व्यवस्था है। लेकिन अब सरकार बलात्कार की पीड़ित महिला को दो लाख रूपये आर्थिक सहायता देने पर विचार कर रही है। राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा तैयार की गई ‘राहत एवं पुनर्वास’ नामक योजना के तहत बलात्कार की पीड़िता को 2 लाख की रकम तीन चरणों में दी जायेगी। बलात्कार की एफआईआर दर्ज कराने पर उसे 20 हजार रूपये की तुरन्त मदद दी जायेगी। 50 हजार की रकम तब दी जायेगी जब पुलिस अपनी जांच में बलात्कार की पुष्टि कर देती है। यह रकम पीड़ित के पुनर्वास, इलाज और काउंसलिंग आदि के लिए होगी और शेष एक लाख तीस हजार की रकम गवाही पूरी होने के बाद दी जायेगी।इस राहत एवं पुनर्वास योजना के तहत बलात्कार पीड़ित की जो आर्थिक मदद की जायेगी, उस बावत महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी का कहना है ‘अक्सर बलात्कार पीड़ित महिला के पास इस हादसे के तुरन्त इलाज के लिए पैसा नहीं होता। इसलिए राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने तुरन्त राहत के लिए आर्थिक पैकेज का प्रस्ताव तैयार किया है।’ निश्चित तौर पर बलात्कार की पीड़ित महिला पर इस हादसे का गहरा असर पड़ता है। यह चोट महज शारीरिक ही नहीं होती बल्कि उसके पूरे व्यक्तित्व पर दूरगामी असर छोड़ती है। पीड़ित खुद के विश्वास को कम आंकने लगती है। उसे ऐसा महसूस होता है कि उसके सम्मान का अपमान किया गया है। जाहिर तौर पर ऐसी क्षतिपूर्ति रकम से नहीं हो सकती। महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी का मानना है कि यह योजना पीड़िता को आर्थिक व सामाजिक मदद प्रदान करने की दिशा में सरकार की आ॓र से उठाया गया एक कदम है। बलात्कार की पीड़ित महिला के लिए इस राहत एवं पुनर्वास पैकेज को मुआवजा नहीं कहा जाना चाहिए। दरअसल सरकार बलात्कार पीड़ित महिला को दिये जाने वाली सरकारी रकम को मुआवजा की बजाय राहत एवं पुनर्वास योजना का नाम इसलिए दे रही है क्योंकि बलात्कार के संदर्भ में मुआवजा शब्द का इस्तेमाल तीखी आलोचना का विषय रहा है। बलात्कार जैसे अमानवीय व वीभत्स कृत्य की क्षति पूर्ति के लिए मुआवजा शब्द का इस्तेमाल उचित नहीं। करीब 13 साल पहले मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में एक महिला के साथ बलात्कार किया गया। पुलिस ने बलात्कारी को तो पकड़ लिया था लेकिन इस घटना को लेकर जनता में प्रशासन के खिलाफ नाराजगी थी। प्रशासन ने जनता की नाराजगी को दूर करने व बलात्कार पीड़ित लड़की के प्रति सहानुभूति दिखाने के मकसद से पीड़िता को मुआवजा देने की घोषणा कर दी। इस मामले की न्यायिक प्रक्रिया के दौरान डाक्टरी जांच के समय अभियुक्त ने उसी पीड़िता के साथ एक बार फिर बलात्कार किया। मध्य प्रदेश सरकार के हाथ-पांव फूल गये और आनन फानन में मुआवजे की रकम बढ़ाकर दोगुनी कर दी। महिला संगठनों ने सरकार को मुआवजे के मुद्दे पर बुरी तरह से घेर लिया और कहा कि लगता है कि सरकार ने बलात्कार की कीमत तय कर दी है। इस प्रखर आलोचना को देखते हुए सरकार को इसके लिए खेद जताना पड़ा। सरकार बलात्कार की पीड़ित महिला की आर्थिक एवं समाजिक मदद के लिए जिस राहत एवं पुनर्वास योजना को अंतिम रूप दे रही है उस पर सवाल भी उठने लगे हैं।यह आर्थिक मदद क्या वास्तव में पीड़ित तक पहुंचेगी या बीच में दलाल अपना हिस्सा काटेंगे ? क्या दो लाख की रकम के लिए झूठे केस भी दर्ज कराये जायेंगे? इन सवालों की पृष्ठभूमि में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम 1989 का अनुभव बोल रहा है। इस अधिनियम 1989 के तहत अगर किसी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की लड़की/महिला के साथ बलात्कार होता है तो सरकार पीड़ित की मदद के लिए 50 हजार रूपये की रकम देती है। लेकिन पाया गया कि इस रकम का कहीं–कहीं सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसका मोटा हिस्सा रकम बांटने वाले सरकारी अधिकारी व पीड़ित की मदद करने वाले अन्य लोग ले जाते हैं। घर के पुरूष मसलन भाई, पति भी किसी न किसी बहाने अपना हिस्सा ले लेते हैं और पीड़ित के हाथ लगती है निराशा। वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री महेन्द्र बुद्ध जो कि खुद दलित हैं, ने स्वीकार किया था कि उस साल राज्य में 740 दलित महिलाओं ने बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई थी जिसमें से 75 प्रतिशत मामले झूठे थे। दरअसल गांव के दबंग लोग अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए इन महिलाओं का इस्तेमाल करते हैं। वे अपनी जाति, जमीन, व पैसे का रौब दिखाकर इन्हें बलात्कार का झूठा मामला दर्ज कराने के लिए डराते धमकाते हंै।

Sunday, July 20, 2008

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं

बदलते समय ने रिश्तों के मायने बदल कर रख दिए हैं। क्योंकि लोगों में हर स्तर पर जागरूकता बढ़ी है, इसलिए समाज में रिश्तों को लेकर भी नज़रिये में बदलाव साफ देखा गया है। आज की युवा पीढ़ी समाज के परंपरागत बंधनों को तोड़ रही है। क्योंकि जुडिशरी भी समाज का ही एक हिस्सा है इसलिए उसका निर्णय भी समाज से प्रभावित होता है। हमारा समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है और उसकी हर व्यवस्था पुरुष का ही समर्थन करती रही है। आज स्त्री समाज के बंधन तोड़ रही है और नई व्यवस्था का दामन थाम रही है। लड़कियां विवाह संस्था से बाहर निकलना चाहती हैं। स्त्रियां जैसे-जैसे शिक्षित होंगी वैसे-वैसे विवाह संस्था से दूर होती जाएंगी। दरअसल महिला की देह पर कब्ज़े के लिए विवाह संस्था का गठन हुआ। पिछले दिनों माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर बच्चा अपने पिता की जात से जाना जाएगा और वहीं दूसरे फैसले में कहा गया कि जात-पात को खत्म कर दिया जाए। न्यायपालिका में एक ही बात को लेकर विभिन्न मत हैं। दरअसल कानून की जटिल प्रक्रिया स्त्रियों की नई-नई समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है। कानून ने स्त्रियों के साथ कोई बहुत अच्छा सुलूक नहीं किया है। बल्कि उनका मज़ाक ही बनाया है। कानूनों की बेहूदगी देखिए - 1975 में टर्मिनंसी ऑफ प्रेगनंन्सी ऐक्ट बना जिसमें कहा गया कि महिला पति की सहमति के बिना अपनी मर्जी से अबॉर्शन करा सकती है। वहीं हिंदू मैरिज ऐक्ट मे कहा गया कि अगर पत्नी ऐसा करती है तो यह मेंटल क्रूअल्टि है और अगर पत्नी बिना बताए फैसला ले ले तो पति पत्नी को इस आधार पर तलाक दे सकता है। इस पर किसी कानूनविद ने बहस की ज़हमत तक नहीं उठाई कि इसकी आड़ में पति, पत्नी पर क्या क्या ज़ुल्म ढा सकता है। इंडियन पीनल कोर्ट की धारा 497 में व्याभिचार के बारे में कानून है, जिसमें कहा गया है कि किसी दूसरे की पत्नी के साथ बिना उसके पति के सहमति से संबंध बनाना नाजायज़ है क्योंकि वह पति की संपत्ति है। वहीं दूसरी ओर लिखा गया है कि अगर विवाहित पुरुष किसी अविवाहिता या तलाकशुदा महिला से संबंध बनाता है तो वह सही है। अगर बात विवाह संबंधी कानूनों की करें तो 16 साल की लड़की अपनी मर्ज़ी से संबंध बना सकती है। अगर पत्नी 15 साल की है तो पति का उससे संबंध बनाना रेप नहीं माना जाएगा और अगर पत्नी 12 से 15 साल की है तो उससे संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा, जिसमें दो साल की सज़ा का प्रावधान है। और वहीं किसी सामान्य लड़की के साथ रेप करने पर सज़ा का प्रावधान 7 साल रखा गया है, यानी एक ही जुर्म के लिए विवाह संस्था के तहत सज़ा का प्रावधान कम है। विवाह संस्था के बने रहने से महिलाओं के खिलाफ अनेक अत्याचार हुए हैं। इसीलिए महिलाओं की रुचि विवाह संस्था में कम होती जा रही है। विवाह संस्था के टूटने का एक कारण यह है कि इसके तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने में पुरुषों को आसानी रहती है। क्योंकि घर की सारी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के ज़िम्मे ही रहती हैं। लेकिन अब समीकरण बदल रहे है। महिलाओं ने अपने अधिकार मांगने शुरू कर दिए हैं। यही वजह है कि अब वह सामाजिक बंधनों का खुलकर विरोध कर रही हैं। और यहीं से एक नए समाज के गठन का रास्ता साफ होता है। यहीं से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना बदलेगी और पूंजी के समीकरण भी बदलेंगे और यह बदलाव ऐतिहासिक होगा। कानून को बदलते सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखकर खुली सोच से काम करने की ज़रूरत है।

घर-घर की कहानी में ज़ुल्म का चेहरा

सास और बहू के किस्से तो हमारे देश में हर किसी की ज़ुबान पर रहते हैं। इस रिश्ते की उलझनों ने पौराणिक दर्जा हासिल कर लिया है। लेकिन यह किस्सा इतना सीधा नहीं है। इसमें एक और पात्र शामिल है- ननद। यूपी की एक अदालत में चल रहा मामला इस लिहाज़ से गौरतलब है। मिर्ज़ापुर की अदालत में दहेज हत्या के एक मामले की सुनवाई चल रही थी। शादी के एक बरस के भीतर लड़की की मौत हो गई। दहेज उत्पीड़न का जो आरोप ससुराल वालों पर लगा, उसमें ननद की भूमिका सबसे ज़्यादा बताई गई। इधर आंकड़े भी इसी तरह की बात कह रहे हैं। पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिला उत्पीड़न में हमउम्र महिलाएं ज़्यादा दोषी पाई गईं। यूपी पुलिस के पूर्व महानिदेशक के. एल. गुप्ता का कहना है कि इसकी वजह टीवी सीरियल हैं, जिनमें ननद को ताकतवर रोल में दिखाया जाता है। यूपी के क्राइम रेकॉर्ड के मुताबिक दहेज हत्या के आरोप में जिन 1069 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया, उनमें 488 यानी 45 पर्सेंट की उम्र 18 से 30 बरस के बीच थी। 45 से 60 बरस के बीच की आरोपी महिलाओं की तादाद 205 यानी 19 पर्सेंट थी और इससे उम्रदराज़ महिलाओं की तादाद सिर्फ तीन। यही बात दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी देखी जा सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक कुल गिरफ्तार 3189 महिलाओं में 18 से 30 बरस की 1296 (40 पर्सेंट), 30 से 45 बरस की 1327 (41 पर्सेंट) और 45 से 60 की 544 (19 पर्सेंट) थीं। इससे ज़्यादा उम्र की महिलाओं की संख्या सिर्फ 13 थी। स्टेट क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के एस.पी. जयनारायण सिंह का कहना है कि दहेज उत्पीड़न में ननद के साथ जेठानी की भूमिका भी पाई गई है। साइकॉलजिस्ट हरजीत सिंह का कहना है कि उनके पास भी ननदों द्वारा सताई गई महिलाएं आती हैं। ननदों को भाई और मां से समर्थन हासिल होता है। हर जेल में दहेज हत्या की आरोपी महिलाएं कैद हैं। वैसे यह किस्सा पुराना हो चुका है कि परिवार में आई नई सदस्य को पुरानी सदस्यों के हमले झेलने पड़ते हैं। दहेज, बेटा पैदा करने का दबाव और कई बहाने हैं, जो हिंसा में बदल जाते हैं। यह कहावत शायद ही किसी ने नहीं सुनी होगी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। हमें यहां कुछ मामलों पर विचार करने की ज़रूरत है। जब बहुओं को दहेज के लिए तंग किया जाता है या मार डाला जाता है, तब उनका पति क्या कर रहा होता है? क्या उसकी सहमति के बिना ही मां और बहन उसकी पत्नी को सताते हैं? ज़ाहिर है, यह सब उसकी रज़ामंदी से ही होगा। हमारे पुरुष प्रधान समाज में मां अपने बेटे से ताकत हासिल करती है और बहन भाई से। अगर उसकी सहमति न हो तो इनकी क्या मज़ाल कि चूं भी करें। आमतौर पर पुरुष उदासीन बना रहकर अपना उल्लू सीधा करता है। मां उसका खयाल रखती है, बहन उसकी सेवा करती है और पत्नी तो है ही दासी। चुप रहने का फायदा उसे मिलता है, इस तरह वह घर के अंदरूनी झगड़ों को सास, बहू, ननद या औरतों का लफड़ा बताकर बेमतलब या तुच्छ ठहरा देता है और किसी भी नैतिक दबाव से आज़ाद होकर चैन की ज़िंदगी जीता है। यह एक शातिर चाल है, जो उत्पीड़न का जाल रच देती है। इसमें हमारे समाज की वे औरतें शामिल हैं, जो पितृसत्ता की सोच को किसी मशीन की तरह अपना लेती हैं। इसमें वह पुरुष शामिल है, जिसकी सोच आमतौर पर यही है कि पत्नी को हर हाल में परिवार में खप जाना चाहिए। इस माहौल में शादी का मतलब दो व्यक्तियों का पार्टनर बनना नहीं है। यह एक पारिवारिक दायित्व है और परिवार पितृसत्ता का सबसे बड़ा औज़ार बना हुआ है। ज़रा ननदों के पुरुषवादी रोल पर गौर कीजिए। अगर वे शादीशुदा हैं, तो ससुराल में खुद उत्पीड़ित हो सकती हैं। लेकिन मायके में वे मां-बाप और भाई के बीच खुद को सत्ता संपन्न महसूस करने लगती हैं। यह एक भ्रमजाल ही होता है, क्योंकि अगर वे मायके में आकर बसना चाहें, जायदाद में अपना हिस्सा मांगें या भाई के बराबर हकों की मांग कर बैठें, तो असल सत्ता उसे भी दूध की मक्खी की तरह छिटक देगी। लेकिन इस सचाई का अहसास उसे नहीं होता। इसकी वजह क्या है? असल में पितृसत्ता की हकीकत को लांघ पाना लड़कियों के लिए मुश्किल होता है। वे आसान रास्ता चुनती हैं और चुपचाप चलती रहती हैं। चाहे वह कोई भी हो, परिवार की महिला सदस्य के निजी अधिकार क्या हैं? निजी अधिकारों का सम्मान हमारे परिवारों की बुनियाद में ही नहीं है। हमारी परंपरा में राखी और करवा चौथ जैसे त्योहार भाइयों और पति पर गौरव करने की सीख देते हैं। वह औरत धन्य है, जिसके भाई हैं। तब वह औरत भाई की पत्नी पर भी रौब जमाएगी। इसी तरह वह औरत भी धन्य है, जिसका पति है। तब वह औरत उस औरत को कमतर ही समझेगी, जो अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा है। यही है पितृसत्ता का खेल, जिसमें पुरुष के पास सूरज की तरह रोशनी होती है। महिलाएं उससे रोशनी पाकर, छीनकर, लूटकर या मांगकर खुद को रोशन करती रहती हैं। शादीशुदा लड़कियां इसे अपनी ज़िम्मेदारी मानती हैं कि माता-पिता को प्यार दें। लेकिन अगर उन्हें साथ रखने या आर्थिक सहयोग की ज़रूरत पड़े, तो वे इसे भाइयों का फर्ज़ समझती हैं। अगर बराबरी की ज़िम्मेदारी नहीं है, तो बराबर की हैसियत भी नहीं होगी। इसीलिए स्त्री समुदाय को ताकतवर बनाने के लिए ज़रूरी है कि उधार की ताकत उनके पास न हो। वे खुद पर भरोसा करना सीखें और काबिलियत हासिल करें। तब वे पति या भाई पर नाज़ करके रह जाने की बजाय बराबरी के रिश्ते बनाएंगी। तब उन्हें यह भी समझ आएगा कि भाई या बेटे की पत्नी का अपना वजूद है, जिसे छीना नहीं जाना चाहिए। इसी तरह बहू भी फिल्मी किरदारों की तरह यह नहीं सोचने लगेगी कि घर में आते ही चाबी उसे मिल जानी चाहिए। वह इस चाबी से सत्ता का राजपाट हासिल करने का झूठा ख्वाब छोड़कर अपनी तिजोरी तैयार करना चाहेगी। असली मुद्दा यही है कि हमारा समाज हर लड़की को बराबर की नागरिक बनाए।

असली गुनाह की पहचान

असली गुनाह की पहचान
महिला तथा बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी विजयी मुद्रा में होंगी। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने आखिरकार वेश्यावृत्ति के खिलाफ कानून में प्रस्तावित संशोधन पर सहमति की मुहर लगा दी है। इस प्रस्ताव पर दूसरे लोगों के अलावा खुद सरकार में शामिल मंत्रियों तथा सांसदों ने ऐतराज उठा दिए थे। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का कहना था कि यदि ग्राहकों को दंडित किया गया (जैसा कि मसविदा बिल में प्रावधान है) तो इस व्यवसाय में लगी महिलाओं की रोजी-रोटी का खतरा पैदा हो जाएगा। इस पर रेणुका चौधरी का तर्क था कि यदि इस व्यवसाय पर लगाम लगानी है तो सिर्फ महिलाओं पर कार्रवाई करना सही नहीं है क्योंकि ज्यादातर महिलाएं मजबूरियों के चलते या धोखे से इस पेशे को अपनाती हैं। विरोध का जो स्वर उठा उसमें एक अहम मुद्दा था इस व्यवसाय में लगी महिलाओं के लिए वैकल्पिक रोजगार तथा पुनर्वास के इंतजाम का। सरकार भी आश्वस्त नहीं थी कि वह इसे कहां तक पूरा कर पाएगी। जब विवाद बढ़ा तो मंत्रियों का एक ग्रुप गठित किया गया, जिसकी अगुआई होम मिनिस्टर शिवराज पाटील कर रहे थे। टीम के अन्य सदस्यों में शामिल थे कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर, अम्बुमणि रामदॉस और मीरा कुमार। यह टीम इस नतीजे पर पहुंची कि वेश्या को अपराधी नहीं, पीड़ित माना जाए तथा ग्राहक को कानून के दायरे में खींचा जाए और उसकी जवाबदेही तय हो। अनैतिक देह व्यापार में सबसे पहले नैतिक और अनैतिक की जो सीमा तय होती है, वह ध्यान देने लायक है। पुरुषों और महिलाओं के लिए नैतिकता के मानदंड अलग-अलग तथा गैरबराबरी वाले हैं। पुरुष अगर कोठे पर जाता है तो उसे माफ किया जा सकता है, लेकिन कोठे पर बैठने वाली महिला को पतिता कहा जाएगा। मौजूदा कानून में सारा दोष पेशा करनेवाली महिला पर आता है। प्रस्तावित बिल उसमें संशोधन करके कोठा मालिक या मालकिन तथा दलालों को निशाने पर लाता है। ग्राहकों को भी सजा के घेरे में लिया गया है। पुरुष, जो इस व्यवसाय में खरीदार है, हमेशा विवादों से परे रहा है। वेश्यावृत्ति की चर्चा में सिर्फ महिलाएं घसीटी जाती रही हैं। प्रस्तावित संशोधित कानून में मानव तस्करी के खिलाफ सख्त सुझाव हैं, जिसमें जुर्म साबित होने पर दस साल की सजा, एक लाख रुपये जुर्माना या संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है। मानव तस्करी को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। नाच-नौटंकी या देवदासी के नाम पर होने वाली खरीद-फरोख्त को भी इस कानून के दायरे में शामिल किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक हर साल सात से दस लाख लोगों की तस्करी होती है। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे होते हैं, जिनका यौन शोषण होता है। वेश्यावृत्ति के मसले पर जब भी समाज में बहस चलती है, तो वह इस सवाल पर ही केंद्रित हो जाती है कि वेश्यावृत्ति कानूनी होगी या गैरकानूनी। कुछ लोग चाहते हैं कि इसे एकदम खत्म कर दिया जाए, जबकि दूसरा खेमा पूरी छूट के पक्ष में है। लेकिन हमारे देश में असल मुद्दा है अपराधीकरण से मुक्ति का, जो हालात तस्करी की जमीन तैयार करते हैं या लोगों को इस जाल में फंसने के लिए मजबूर करते हैं उन्हें खत्म करने का। जब इस बिल पर पहली बार चर्चा शुरू हुई तो एक तबके की ओर से यह कहा गया कि अगर यह कानून बना तो इसके चलते इस पेशे पर असर पड़ेगा और बेरोजगारी की समस्या खड़ी होगी। बेरोजगारी वाकई हमारे देश की एक बड़ी समस्या है। वह सिर्फ बार बालाओं या यौन व्यवसाय में लगे लोगों का मसला नहीं है। बेरोजगार युवाओं की बड़ी फौज सड़क पर है। बेरोजगारी ने करोड़ों बच्चों को बाल मजदूर बनाया है और अस्सी साल का बुजुर्ग भी रिक्शा खींचता है। किसानों की आत्महत्या की खबरें किसने नहीं पढ़ी? लिहाजा बेरोजगारी के साथ इस मुद्दे को नत्थी कर देने से समस्या को संबोधित नहीं किया जा सकेगा। एक सवाल इच्छा का भी उठता है कि कोई स्त्री अपनी मर्जी से भी इस पेशे को अपना सकती है। निश्चित ही यह एक पहलू है लेकिन फिर यह जानना चाहिए कि इच्छा होने या न होने के भी कारण होते हैं। इच्छाएं अपने परिवेश में ही तैयार होती है, वे जन्मजात नहीं होतीं। हमारे परिवेश में स्त्री को सिर्फ 'देह' होने की और उसी में सीमित रह कर सोचने की सीख तरह-तरह से दी जाती है। वह अपने शरीर के मायाजाल में उलझी रहे तो पुरुष प्रधान समाज का फायदा ही है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसमें नए-नए आयाम जोड़े हैं। स्त्री भी खुद को या तो श्रद्धा की वस्तु समझती है या फिर पुरुषों का खिलौना। वह खुद को आकर्षण के केन्द्र में बनाए रखने की मानसिकता का शिकार हो जाती है, जबकि उसकी यह कोशिश पुरुष को केन्द्र में ला देती है। दूसरी तरफ औरत के माता होने को महिमा मंडित किया जाता है और इस तरह हर बात औरत को औरत बने रहने के लिए प्रेरित करती है। कुल मिलाकर देखें तो माहौल ऐसा है कि महिलाएं खुद अपनी क्षमताओं को नजरअन्दाज करना सीख जाती हैं। उनकी इच्छा की बात कर उन्हें देह में बदल दिया जाता है। इसे ही वर्चस्व की राजनीति कहते हैं, जिसमें पीड़ित खुद ही उत्पीड़क की इच्छा और मानसिकता से लैस हो जाता है। आज औरतों और बच्चों की तस्करी नशीले पदार्थों की तस्करी की तरह भारी मुनाफे वाला व्यवसाय बन गया है। देह व्यापार में लगी औरतों में साठ प्रतिशत नाबालिग बताई जाती हैं। इन बच्चियों की इच्छा कैसे पूछी जाती है इसका हम अंदाजा लगा सकते है। कई रिसर्च या सर्वे रिपोर्टें आ चुकी हैं जिनसे साबित होता है कि इस व्यापार में हालात के मारे लोगों की संख्या ही ज्यादा है। जो लोग पैसा फेंककर इन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं, वे भी कानून के शिकंजे में आएं, यह जरूरी था। प्रस्तावित कानून में यह इंतजाम किया गया है। लेकिन मर्दवादी मानसिकता से ग्रस्त रक्षक उसे कितना लागू करेंगे या दूसरों को लागू करने देंगे यह संदेह के घेरे में है। इस मामले में पुलिस की भूमिका पहले ही उजागर हो चुकी है। कानून तो बन जाएगा, लेकिन जाहिर है, बात वहीं पर खत्म नहीं होगी।

बचपन और अपराध

बचपन और अपराध
जिस देश की कानून-व्यवस्था में अपने नागरिकों के प्रति कोई सम्मान का भाव न हो, जहां अमीरों के बड़े से बड़े अपराध के बावजूद उनकी सार्वजनिक गिरफ्तारी तक न होती हो और निरपराध होने के बावजूद गरीब अभियुक्तों को पूरी जिदगी जेल की सलाखों के पीछे गुजार देनी पड़ती हो, वहां किसी आरोपी या सजायाफ्ता व्यक्ति के बच्चों की स्थिति के बारे में सोचने की फुरसत भला किसके पास होगी। किसी भी सभ्य समाज के लोग इस सूचना से चकित हो जाएंगे कि भारत में ऐसे बच्चों की तादाद सैकड़ों में नहीं हजारों में है जिन्हें अपना पूरा बचपन जेल की सलाखों के पीछे सिर्फ इसलिए गुजारना पड़ता है कि उनकी मां किसी अपराध की सजा भुगत रही है, या सिर्फ उसपर किसी अपराध में शामिल होने का आरोप है। इससे कहीं बड़ी तादाद ऐसे बच्चों की है, जो माता-पिता में से किसी एक के या दोनों के ही जेल में बंद होते हुए जेल से बाहर अपना जीवन गुजारते हैं और अक्सर कच्ची उम्र में ही अपराध की गलियों में भटक जाते हैं। यही नहीं, इससे सैकड़ों गुना ज्यादा बच्चे जीवन में अपनी मेहनत, कौशल और बुद्धि के बल पर गुजारा करने का हौसला इस वजह से खो बैठते हैं कि माता-पिता के जिस संबल पर उनके पूरे मनोविज्ञान की बुनियाद रखी जानी होती है, वह बचपन में ही टूट-बिखर चुका होता है। कुछ वर्दीधारी अजनबी लोग अगर किसी बच्चे के सामने उसकी मां या बाप को पकड़कर उसकी अमानुषिक पिटाई करें तो इस संसार में अच्छाई के मूल्य पर उसकी कितनी आस्था रह पाएगी? शहरी मध्यवर्ग को इस वर्णन में शायद अतिरेक नजर आए, लेकिन गांवों-कस्बों में यह श्य आम हुआ करता है कि कच्ची शराब चुआने, शराब बेचने या चोरी-चकारी करने के जुर्म में पुलिस वाले किसी को पकड़ लेते हैं और भीड़ के सामने उसकी हड्डी-पसली एक करके समाज से ‘बुराई दूर करने का प्रयास’ करते हैं। अक्सर ऐसे मामले पकड़े गए व्यक्ति की माली हालत पर निर्भर करते हैं। जैसे ही वह कुछ हरे-हरे नोट पुलिस वालों तक पहुंचने का इंतजाम कर देता है, वैसे ही शक की सुई उसकी तरफ से हटकर किसी और दिशा में घूम जाती है। भारतीय पुलिस की दशा कैसे सुधारी जाए, इस बारे में तो शायद विधाता की भी अबतक कोई ठोस राय नहीं बन पाई होगी, लेकिन किसी आरोपित व्यक्ति को बचाने के लिए हाथ-पैर जोड़ने आई उसकी पत्नी या बहन के साथ थाने में बलात्कार न हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की पहल पर दो-तीन साल पहले कुछ उपाय किए गए हैं। ठीक ऐसे ही उपाय उन बच्चों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए भी किए जाने चाहिए, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि उनके मां-बाप को कुछ अनजान-अजनबी लोग घेरकर पीट क्यों रहे हैं और अपराध या दंड जैसी किसी चीज के बारे में रत्ताी भर भी समझ पैदा होने से पहले ही उनकी जिदगी की दिशा तय हो चुकी होती है। ऐसे मामलों में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा दिए गए दोनों सुझावों- बच्चों के सामने उनके माता-पिता से कोई पूछताछ न करने और बच्चों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विशेष बाल पुलिस इकाई गठित करने- पर गंभीरता से अमल किया जाना चाहिए।

एड्स पर स्वीकारोक्ति

एड्स पर स्वीकारोक्ति
एड्स एवं एचआईवी ये दो शब्द पिछले करीब दो दशकों से पूरी दुनिया को आतंकित करते रहे हैं। तथाकथित एचआईवी विषाणु से उत्पा होने वाले एड्स को लेकर इतना प्रचार हुआ और विा स्वास्थ्य संगठन ने इतना व्यापक कार्यक्रम चलाया कि तमाम देशों को अपने स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन करने को बाध्य होना पडा। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा किसी एक बीमारी से जुड़े कार्यक्रम पर धन झोंका गया है तो वह एड्स है। हालांकि आरंभ से ही एड्स के भय को अनावश्यक करार देने वाले भी रहे हैं, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। अब अपने जीवन का एक बडा हिस्सा एड्स के विरूद्ध लड़ने में बिताने वाले डॉ. केविन डी. कॉक ने कहा है कि एचआईवी विषाणु से होने वाला खतरा बदल गया है। उनके अनुसार यह विषाणु अब केवल समलैंगिकों, नशाखोरों और वेश्याओं व उनके ग्राहकों तक सीमित हो गया है। एड्स को सबसे बड़ी महामारी मानने वालों में डॉ. केबिन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी भाषा बदली है, इसके सबसे बडे प्रचारक संयुक्त राष्ट्र ने ही कुछ महीने पहले कहा था कि विा भर में एचआईवी के मामले घटे हैं। उसने 4 करोड़ से घटकर 3 करोड़ 30 लाख होने का आंकडा भी दिया है। इन दोनों बातों में अभी भी एचआईवी एवं एड्स के खतरे को स्वीकार किया गया है। वास्तव में दुनिया भर में ऐसे लोग अब खड़े हो चुके हैं जो एचआईवी की कल्पना, उसके आधार पर बुनी गई बीमारी एवं उसकी संख्या की भयावह तस्वीर को पूरे मनुष्य समुदाय के लिए धोखाधड़ी करार दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अभी भी जो आंकडा दे रहा है वह संदिग्ध है, क्योंकि ये आंकड़े उन एनजीआ॓ द्वारा जुटाए गए हैं जो कि एड्स के नाम पर करोडों का कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयं भारत में ही यह साफ हो चुका है कि जितने एचआईवी संक्रमण की संख्या यहां दी गई उतनी है ही नहीं। जिस समय एड्स का नाम अस्तित्व में आया तब यह कहा गया था कि एशिया की आबादी ज्यादा होने के कारण वहां यह बड़ी महामारी होगी। इसमें भारत एवं चीन का नाम लिया गया था। हालांकि ये दोनों बातें गलत साबित हुईं, लेकिन इस बीच एशिया के देशों ने एड्स के नाम पर न जाने कितना धन खर्च किया। स्वयं भारत ने स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाम से एक विभाग ही कायम कर दिया। भारत में काम की जो बातें पर्दे के पीछे थीं उसे विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचा दिया गया। कंडोम के विज्ञापन को सामाजिक सेवा बना दिया गया। इससे नैतिक हानि हुई और सामाजिक मर्यादाएं ध्वस्त होने से परंपरागत व्यवस्था की चूलें हिल गयीं। बच्चों को विघालयों में सेक्स शिक्षा देने के पीछे सबसे बडा तर्क एड्स जागरूकता को ही बनाया गया। अब डॉ. केविन कह रहे हैं कि लोगों को जागरूक करने पर धन लगाने से ज्यादा जरूरी है कि खतरे की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को निशाना बनाया जाए। यानी जन जागरूकता के नाम पर जो कुछ किया गया वह व्यर्थ था। अगर एचआईवी वाकई है तो यह सेक्स के मामले में व्यभिचार करने वालों, खतरनाक नशे का सेवन करने वालों को हो ग्रसित करता है। भारत के आम आदमी को परंपरागत रूप से इतनी सीख मिली हुई है।

हिन्दू विवाह कानून

हिन्दू विवाह कानून
उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू विवाह कानून की घातक खामियों की आ॓र ध्यान खींचकर निश्चय ही देश पर उपकार किया है। न्यायालय ने हिन्दू समाज में बढ़ती तलाक की प्रवृत्तिा एवं छोटी-छोटी बातों पर पति-पत्नी के बीच अलगाव पर चिता व्यक्त करते हुए उसकी जड़ 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में तलाशी है। वास्तव में इस अधिनियम में तलाक के लिए जो आधार बनाए गए हैं वे हिन्दू समाज की परंपरा से मेल नहीं खाते और नई जीवन शैली में इसका प्रावधान समाज को तोड़ने का आधार बन रहा है। मसलन, इसमें पत्नी के विाास को धोखा, निर्दय व्यवहार, परित्याग, आदि या पति द्वारा दुनियादारी से संन्यास लेने, मानसिक रोग, कुष्ट या अन्य छूत की बीमारियों के आधार पर तलाक लेने की बात है। दोनों की सहमति से तलाक लिया जा सकता है। तलाक के ये प्रावधान पश्चिमी कानूनों से उधार लिये गए हैं जो हमारी मानसिकता से मेल भी नहीं खाते। न्यायालय की यह टिप्पणी वाकई र्मािमक है कि हमारे दादा-परदादा भी मानसिक रोग से ग्रस्त होते थे लेकिन उनकी पत्नियां कभी उन्हें छोड़कर नहीं जाती थीं। वास्तव में परिवार हमारी अंत:शक्ति का मूलाधार रहा है। हिन्दू विवाह कानून उस मूलाधार पर आघात पहुंचाने की भूमिका अदा कर रहा है। न्यायालय की इस टिप्पणी में शायद अतिशयोक्ति दिखाई पड़े कि अब तो शादी होने के पहले ही तलाक के कागजात तैयार रखे जाते हैं ताकि समय आने पर उपयोग किया जा सके, लेकिन यह पश्चिम के प्रभाव से युवक-युवतियों की भयावह सोच को उद्घाटित करने वाला है। जिस ढंग से तलाक की संख्या बढ़ रही है वह वाकई चिताजनक है। अकेले जीने की प्रवृत्तिा का समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मानसिक और व्यावहारिक जीवन में इसके त्रासदपूर्ण परिणामों के अनुभव आए दिन सामने आते हैं। साधु-संतों और वैरागियों के अलावा एकल जीवन हमारी जीवन शैली का अंग नहीं था और न समाज की रचना ही उसके अनुकूल है। तलाक की पीडा केवल पति-पत्नी को ही नहीं भुगतनी पड़ती, उनका मूल परिवार भी इससे प्रभावित होता है, क्योंकि परिवार एवं रिश्तेदारी का भावनात्मक जुडाव अभी भी हमारे समाज की महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में कायम है। बच्चों के लिए तो तलाक वाकई एक त्रासदी ही साबित होता है। न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा है कि अंत में बच्चा ही कष्ट झेलता है। अगर वह लड़की है तो वह कष्ट और अधिक हो जाता है, खासकर तब जब लड़की की शादी का वक्त आता है। भारतीय परंपरा में पति-पत्नी के दूर रहने की अवस्था यानी विरह की पीडा पर न जाने कितनी मर्मस्पर्शी रचनाएं हैं और तलाक तो विरह को स्थायी बना देता है। प्रश्न है कि क्या न्यायालय की टिप्पणियों के मद्देनजर हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन कर तलाक के प्रावधानों को और कडा बनाने की पहल होगी? विवाह कानून का उद्देश्य विवाह प्रथा एवं परिवार परंपरा को सशक्त करना होना चाहिए। अगर यह विवाह प्रथा को ही मजाक बना रहा है एवं इसके प्रावधानों से परिवार परंपरा ध्वस्त हो रही है तो निश्चय ही इस पर पुर्निवचार होना चाहिए।

अपराध और दंड

पिछले दिनों अपराध और उनकी सजा से संबंधित दो खबरें प्रकाशित हुईं। एक खबर यह थी कि पुलिस ने छह साल के एक बच्चे पर चोरी का केस दर्ज किया और उसे थाने में बंद रखा। कानूनन सात साल से कम उम्र के बच्चे पर आपराधिक मामले नहीं दर्ज किए जा सकते। पुलिस ने इतनी सक्रियता क्यों दिखाई? क्योंकि वह एक गरीब और अनाथ बच्चा था। क्योंकि शिकायत करने वाली महिला हाई प्रोफाइल थी। उसने छोटे से बच्चे के एक छोटे से अपराध (बिजली के स्विच की चोरी) की शिकायत सीधे पुलिस स्टेशन में क्यों की? क्योंकि हाई प्रोफाइल होने के बाद सामाजिक सहिष्णुता खत्म हो जाती है। पुलिस ने बच्चे की उम्र की जांच कराए बिना उसे दस साल का माना, केस दर्ज किया और बच्चे को गिरफ्तार किया। पुलिस की इस लापरवाही का लाभ किसे मिला? उस हाई प्रोफाइल महिला को, जिसके अहंकार की तुष्टि हुई। इसका नुकसान किसे हुआ, उस बच्चे को जो बिना मां-बाप का है और जिसकी कोई अर्थिक या सामाजिक हैसियत नहीं है। ठीक इसके बाद आप उस दूसरी खबर पर नजर डालें, जिसमें अहमदाबाद की एक अदालत ने बीजल जोशी रेप केस में पांच लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई है। यह पांच साल पुराना मामला है, जिसमें एक अमीर व्यापारी के लड़के ने अहमदाबाद में 'न्यू ईयर ईव' पर अपनी 'प्रेमिका' के साथ गैंग रेप किया। उसने ऐसा क्यों किया? क्योंकि उसकी उस पूरी मित्रमंडली के लिए 'प्रेमिका' का यही उपयोग था। इस मामले में केस दर्ज होने के बावजूद अहमदाबाद की पुलिस ने एक हफ्ते तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। पुलिस की उस निष्क्रियता की क्या वजह थी? वजह यह थी कि जिन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था, वे रईस लोग थे। वे होटलों के मालिक थे, वे बंगला, गाड़ी और पैसे वाले थे। ये दो मामले हैं, जिनके बारे में संयोगवश खबरें एक साथ आ गई हैं। हमेशा नहीं, लेकिन ऐसी अनेक घटनाएं हम अपने आसपास देखते हैं, जिनमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसियां- खास कर पुलिस, ताकतवर या असरदार लोगों के हितों के संरक्षण के लिए काम करती नजर आती है। सब नहीं, पर ऐसी अनेक घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें पैसे, पहुंच और अधिकार संपन्न लोग आम नागरिकों की तुलना में ज्यादा बदमिज़ाज और असहिष्णु नजर आते हैं, या कानून तोड़ते नजर आते हैं। आजाद हिंदुस्तान में विकसित हुए ये कैसे मूल्य हैं जिनके अनुसार ताकतवर होने का मतलब है गलत करने की छूट और तंत्र का सिपाही होने का मतलब है ऐसे लोगों की हित रक्षा। जब तक हम इसका जवाब नहीं ढूंढेंगे, हमें असली लोकतंत्र नहीं मिलेगा।

Saturday, July 19, 2008

मुद्दा : सामाजिक कलंक बना बाल श्रम


आ॓.पी. सोनिकपिछाले महीने बाल श्रम निषेध दिवस के अवसर पर देश में किसी नई योजना की घोषणा तो नहीं की गई लेकिन महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने यह कहकर ‘बाल श्रम’ की परिभाषा के दायरे पर एक नई बहस शुरू कर दी है कि ‘टीवी धारावाहिकों, रियलिटी शो एवं विज्ञापनों में काम करने वाले बच्चों को भी बाल श्रमिकों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।’ मंत्रालय ने उक्त बच्चों को बाल श्रमिक मानने हेतु दो मुख्य तर्क दिये हैं। पहला, ऐसे बच्चों को काम के बदले पैसा मिलता है। दूसरा, 10-12 घंटे काम करने के कारण बच्चों का शारीरिक एवं शैक्षिक विकास दोनों प्रभावित होते हैं। बच्चों के हित में उठाये गये किसी भी कदम का निश्चित रूप से स्वागत होना चाहिए।मजबूरी में की जाने वाली बाल मजबूरी और अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए की गयी बाल मजदूरी में बुनियादी अंतर है। गरीबी के कारण दो वक्त का भोजन जुटाने में असमर्थ परिवारों के बच्चे बाल श्रम के रास्ते पर निकल पड़ते हैं। जबकि टीवी कार्यक्रमों में शामिल होने वाले बच्चे आर्थिक अभावों से मुक्त होते हैं। गरीबी की कोख से ही बाल मजदूरी की मजबूरी का जन्म होता है। लेकिन राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शान्ता सिन्हा का मानना है- ‘देश में बाल मजदूरी का कारण गरीबी नहीं, बल्कि गरीबी का कारण बाल मजदूरी है।’ यानी कि बाल श्रम के मुद्दे में एक और वैचारिक पेच कस दिया गया है। यह किसी विडम्बना से कम नहीं है कि नॉलेज सुपर पावर बनने के प्रयासों में जुटे भारत के करीब सवा करोड़ बच्चे स्कूलों में पढ़ने के बजाय बालश्रम की विवशताओं से जूझ रहे हैं। जिनके पुनर्वास के लिए करीब 4 हजार करोड़ रूपयों की जरूरत पड़ेगी। देश के कुल बाल श्रमिकों में सर्वाधिक आंध्र प्रदेश में- 14.5 प्रतिशत हैं जबकि उप्र में 12.5, मप्र में 12, महाराष्ट्र में 9.5, बिहार में 8.3 और राजस्थान में 9 प्रतिशत बाल श्रमिक हैं। बचपन बचाआ॓ आंदोलन के अनुसार देश में करीब पौने दो करोड़ बाल श्रमिक हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही करीब 50 हजार बाल श्रमिक हैं। अमेरिकी विदेश विभाग की मानव व्यापार संबंधी रिपोर्ट 2008 में खुलासा किया गया है कि भारत में केंद्र सरकार बाल श्रम संबंधी आंकड़ों को छुपाती है। बचपन बचाआ॓ आंदोलन के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी का मानना भी यही है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम मामले में अपनी छवि साफ रखने के प्रयासों में सरकार आंकड़ों को छुपाती है। आखिर कीचड़ पर कालीन बिछाने के प्रयास कब तक होते रहेंगे।पिछले साल अमेरिकी सरकार ने बाल श्रम से संबंधित एक अधिसूचना जारी की थी, जिसमें भारतीय उत्पादों को आयात करने से पहले अमेरिका के बड़े खरीदारों एवं संबंधित अधिकारियों द्वारा भारत की संबंधित फैक्ट्रियों का निरीक्षण कर यह पता लगाने का प्रावधान किया गया कि भारत से आयात होने वाली वस्तुओं के उत्पादन कार्य में बाल श्रम का प्रयोग तो नहीं हो रहा है। देश में परिधान, कालीन, रत्न, आभूषण, खेलकूद के सामान एवं हस्तशिल्प आदि कार्यों में बड़ी संख्या में बाल श्रमिक लगे हुए हैं। तमिलनाडु (शिवकाशी) स्थित माचिस एवं आतिशबाजी उघोग में 50 हजार से अधिक, अन्य राज्यों में चल रहे कालीन उघोग में करीब 1 लाख 50 हजार, जयपुर के रत्न पालिश उघोग में 15 हजार, फिरोजाबाद में कांच उघोग में 50 हजार और मानवाधिकार से संबंधित एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले कपास की खेती कार्य में ही 4 लाख से अधिक बाल श्रमिक कार्य कर रहे हैं।भारतीय अर्थव्यवस्था में बाल श्रम की समस्या बहुत पुरानी है। देश की अर्थव्यवस्था मूलत: ग्रामीण है। ग्रामीण व्यवस्था मूलत: जाति आधारित है और जाति व्यवस्था मूलत: पेशा (व्यवसाय) आधारित है। इस तरह से श्रम की जड़ें सीधे जाति से जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि गड़रिया परिवार के बच्चों द्वारा जंगलों में भेड़ चराने, कुम्हार जाति के बच्चों द्वारा मिट्टी के बर्तन बनाने, वाल्मीकि जाति के बज्चों द्वारा सफाई कार्य करने जैसे अनेक जातिगत एवं परंपरागत कार्यो (बाल श्रम) को समाज में स्वाभाविक मान लिया जाता है। यह स्वाभाविकता भी बाल श्रम के सामाजिक कलंक को और भी गहरा कर रही है। विघालयों की दीवारों पर एक आदर्श वाक्य लिखा रहता है कि ‘देश का धन बैंकों में नहीं विघालयों में है’। सर्वशिक्षा अभियान के तमाम दावों के बीच देश में पांच से चौदह वर्ष तक के कुल बच्चों में करीब 65 फीसदी बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं और कक्षा दसवीं तक पहुंचते-पहुंचते करीब 60 फीसदी बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। 20 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो न तो स्कूल जाते हैं और न ही कोई काम करते हैं। मिड-डे मील का आकर्षण भी निरंतर कम हो रहा है। जब तक शिक्षा को रोजगारोन्मुखी नहीं बना दिया जाता तब तक न तो पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य पाना संभव हो पाएगा और न ही बाल श्रम की समस्या से निजात पाना।

Friday, July 18, 2008

मुद्दा : समलैंगिकता और कानूनी स्वीकृति

29 जून2008 को देश की राजधानी दिल्ली में समलैंगिकों ने पहली बार प्रदर्शन कर अपने सम्बंधों को सामाजिक रूप से कानूनी स्वीकृति देने और धारा 377 खत्म करने की मांग की। इसी तरह का प्रदर्शन कोलकाता और बैंगलुरू में भी किया गया। गौरतलब है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 ‘अप्राकृतिक यौनाचार’ को गैर कानूनी और समलैंगिक को अपराधी घोषित करती है। इसके बावजूद देश में समलैंगिकों की तादाद बढ़ने के पीछे कौन से कारण हैं, उनका खुलासा होना बेहद जरूरी है। मनोचिकित्सक व यौन विशेषज्ञों के अनुसार होमो यानी समलैंगिक पुरूष और लैस्बियन यानी स्त्री समलैंगिक बनने के पीछे यौन सम्बंधी गड़बड़ियां प्रमुख कारण हैं। उन लड़कों में जिनमें लड़कियों के यौन हारमोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टोन निश्चित मात्रा से ज्यादा होते हैं, उनमें चाल-चलन, बोल-चाल, रहन–सहन व यौनेच्छाओं पर स्त्रीत्व की छाप ज्यादा दिखलायी देती है, वे ही समलैंगिक बनते हैं। उन लड़कियों में जिनमें पुरूषों के यौन हारमोन टेस्टोस्ट्रोन निश्चित मात्रा से ज्यादा पाये जाते हैं, वे लड़कियों के प्रति ज्यादा आकर्षित होती हैं। वे बचपन से ही ऐसी हरकतें करती हैं लेकिन माता-पिता उसे उनकी बाल सुलभ क्रीड़ाएं समझ ध्यान नहीं देते। ऐसी हालत में वे विपरीतलिंगी जैसी हरकतें करती हैं। आगे चलकर वे लैस्बियन बन जाती हैं। इसके अलावा जिन लड़के-लड़कियों के गुप्तांग विकसित नहीं होते, वे हीनभावना से ग्रस्त हो अक्सर समलिंगी से यौन सम्बंध बना लेते हैं। इसके पीछे उनकी मान्यता है कि यदि समय पर उनका शारीरिक व गुप्तांग का विकास नहीं हो पाया, उस स्थिति में विपरीतलिंगी का उनके प्रति न आकर्षण होगा न ही सेक्स के प्रति समर्पण। कुछ लड़के-लड़कियां ऐसी हैं जिनके माता-पिता अक्सर विपरीतलिंगी से बात करने तक की इजाजत नहीं देते और कुछ वे जो 13 साल से पहले ही सेक्स का अनुभव कर लेते हैं, वे समलैंगिकता के शिकार जल्दी हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे इसके आदी हो जाते हैं। प्रख्यात मनोचिकित्सक डा. जितेन्द्र नागपाल के अनुसार समलैंगिक पुरूष एक्टिव और पैसिव दो प्रकार के होते हैं। गुंडे, बदमाश, इलाके के दादा या पहलवान टाइप के ताकतवर लड़के एक्टिव कहलाते हैं जिन्हें अपने आतंक या शारीरिक बल के चलते सेक्स के मामले में दूसरे लड़कों को कष्ट पहुंचाने में आनंद मिलता है। पैसिव वे होते हैं जिनमें हर मामले में स्त्रीत्व सीमा से अधिक दिखाई देता है और जिन्हें सेक्स के दौरान दर्द सहने में ज्यादा आनंद मिलता है। एक भी दिन उनके साथ ऐसा न हो तो वे बेचैन हो जाते हैं। मनोचिकित्सक डा. अरूण गुप्ता के अनुसार ऐसे लोग अधिकतर जेल, पागलखाने, अनाथालय या होस्टलों में पाये जाते हैं। ऐसे युवक–युवती अपने ही घर में विपरीतलिंगी से बातचीत तक न करने वाले भय, निराशा और विपरीत सेक्स का अपने प्रति आकर्षण न होने के कारण अपने ही समलिंगी से शारीरिक सम्बंध बना लेते हैं। इस बारे में मनोचिकित्सक व प्रोफेसर डॉ. शेखर सक्सेना कहते हैं कि यह नया नहीं है, और न ही बीमारी है। यह सामाजिक–पारिवारिक हालातों से उपजी एक आदत, डर व हीनभावना है। इस वजह से ऐसे मामले आजकल तेजी से बढ़ रहे हैं।समाज में समलैंगिकों की स्थिति में पिछले डेढ़ दशक से काफी बदलाव आए हंै। अब वे अपनी खुली पहचान चाहते हैं जबकि पहले यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। पिछले आठ सालों में तो 18 से 24 साल के बहुतेरे समलिंगी जोड़े खुलकर सामने आए हैं और बहुतेरे आए–दिन सामने आ भी रहे हैं। अब वे अपने दुत्कार, बहिष्कार या घृणास्पद व्यवहार का पहले की अपेक्षा खुलकर सबके सामने आकर प्रतिकार करने लगे हैं और अपने बुनियादी अधिकारों की विभिन्न मंचों से मांग भी करने लगे हैं। वैसे तो देश में वह 1997 से ही अपने अधिकारों के लिए आंदोलनरत हैं लेकिन वर्ष 2004 में जनवरी माह में मुंबई में ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ के अवसर पर उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर समूचे देश को इस मुद्दे पर यह सोचने पर विवश किया कि अब अधिक दिनों तक उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। भले सरकार यह दलील देकर कि–‘समाज इस तरह के सम्बंधों को कतई मंजूर नहीं करता, इसलिए इसे किसी भी कीमत पर कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती’ उनकी मांग को सिरे से खारिज कर दे। लेकिन यह सर्वविदित है कि समलैंगिकता कोई नई बात नहीं है। उसी वर्ष बैंगलूर में ‘कामुकता, पौरूषता और संस्कृति’ विषय पर संपन्न दक्षिण एशियाई सम्मेलन पर समलैंगिकों की बडे़–बडे़ समूहों में मौजूदगी ने स्पष्ट कर दिया कि पुरूष या स्त्री समलैंगिकता, दोहरे सेक्स सम्बंधों पर व लिंग परिवर्तन करने वालों के बारे में मौन रहने का जमाना अब लद चुका है। इन मुद्दों पर बहस और गोष्ठी किए जाने की जरूरत समय की मांग है। इसे अपवाद मानकर परे नहीं धकेला जा सकता।

इतना नाराज क्यों है भारत

भारत डोगरा डेमोक्रेसी की एक बुनियादी मान्यता यह है कि शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों से बदलाव लाया जा सकता है। लेकिन फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि डेमोक्रेटिक देशों में हिंसक संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं? भारत में भी ऐसे कई आंदोलन चल रहे हैं, जैसे मध्य भारत में माओवादी आंदोलन, सरहदी इलाकों में अलगाववाद और जाति, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उठ खड़े होने वाले बखेड़े। अगर पिछले एक दशक में इन आंदोलनों से हुए जान-माल के नुकसान का हिसाब देखा जाए, तो लगेगा कोई भयानक जंग छिड़ी हुई है। श्रीलंका जैसे कई देशों में हालत कई गुना ज्यादा खराब है। पाकिस्तान और म्यांमार को बहुत समय तक तानाशाही झेलनी पड़ी है, इसलिए वहां हिंसक आंदोलनों की वजह को समझा जा सकता है। लोकतांत्रिक विकल्प न मिलने पर लोग हिंसा का रास्ता अपनाते ही हैं। तानाशाही के बरक्स इन्हें जायज ठहराने के तर्क जुटाए जा सकते हैं। लेकिन भारत और श्रीलंका में डेमोक्रेसी की इतनी लंबी और मजबूत परंपरा के बावजूद अगर हिंसक आंदोलन इतनी तेजी से फैल रहे हैं, तो इस ट्रेंड की गहराई से पड़ताल होनी चाहिए। इसकी वजहें मुख्य रूप से चार तरह की हैं। पहला, डेमोक्रेटिक सिस्टम में समस्याओं के सही समय पर शांतिपूर्ण हल की गुंजाइश तो है, लेकिन यह प्रक्रिया अभी मजबूत नहीं हो सकी है। गरीब तबके से प्रशासनिक तंत्र के अलगाव, करप्शन, इंसाफ में देरी और दूसरी जटिलताओं ने मिलकर ऐसा माहौल बना दिया है कि कमजोर तबकों की आवाज पर ध्यान ही नहीं जाता। वे जितने शांतिपूर्ण होते हैं, उतने अनसुने रह जाते हैं। उनकी मांगें मानने या न मानने से प्रशासन या शासन को कोई फायदा-नुकसान नहीं होता। इन तबकों को पार्टियां इलेक्शन से पहले कुछ राहत दिलाने की कोशिश करती हैं, लेकिन चुनाव के बाद स्थायी समाधान पर खास गौर नहीं किया जाता। कहना होगा कि सिस्टम की ये कमजोरियां असंतोष और विरोध के नए-नए मौके पैदा करती जाती हैं, क्योंकि नेक इरादों से शुरू की गई सरकारी योजनाएं इसकी बलि चढ़ जाती हैं। हिंसक आंदोलनों के बढ़ने की दूसरी वजह है लोगों में जोर पकड़ती यह धारणा कि किसी धमाकेदार घटना से ही उनकी समस्याओं पर सरकार का ध्यान जाएगा। वैसे भी जब सहज तरीके से लोगों को समस्याओं का जवाब हासिल नहीं होता, तो वे उग्रता की ओर झुकते हैं। यह जरूरी नहीं कि ये लोग हिंसा को स्थायी तरीका मानते हों, लेकिन उन्हें लग सकता है कि एक-दो बार हंगामा फायदेमंद होता है। लेकिन इसके बाद हालात इतने उलझ जाते हैं कि हिंसा का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस ट्रेंड का तीसरा कारण है राजनीति के विचलन। जाति, क्षेत्र और धर्म के मुद्दों को स्वार्थी सियासत के तहत इस तरह भड़काया जाता है कि कोई न्यायसंगत फैसला ले पाना मुश्किल हो जाता है। नदी जल के बंटवारे को लेकर कई बार ऐसे हालात बने हैं। इन मामलों में जान-बूझकर हिंसा भड़काई जाती है। मकसद होता है किसी खास वोट बैंक को अपनी तरफ मोड़ना। यहां डेमोक्रेसी ही डेमोक्रेसी की राह में आ जाती है। सरकार के लिए इन मामलों से निपटना बेहद मुश्किल होता है। अगर एक पक्ष की बात मानी जाए, तो दूसरा उग्र हो उठता है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिए जाने को लेकर छिड़ा विवाद इसकी बानगी है। और हद तो तब होती है, जब किसी मांग को माना ही न जा सकता हो। ऐसे में हिंसक मोड़ आए बिना नहीं रहता। इसकी मिसाल है रिजर्वेशन को लेकर होने वाले आंदोलन। हर जाति कोटा चाहती है, लेकिन सरकार के हाथ बंधे होते हैं। ये आंदोलन इस अहसास से पैदा होते हैं कि डेमोक्रेसी में कुछ भी कराया जा सकता है, बशर्ते आपके पास वोट हों। यह एक अजब स्थिति है, जहां डेमोक्रेसी की ताकत को कानून के राज से बड़ा समझ लिया जाता है। ऐसे विवाद आम तौर पर सुलझते नहीं और बरसों तक अपना असर दिखाते रहते हैं। हिंसा की चौथी वजह है आर्थिक स्वार्थ। हिंसा का अपना अर्थशास्त्र है और वह एक बड़ा बाजार पेश करती है, खास तौर से उन लोगों को जो हथियारों का व्यापार करते हैं। नशे की सौदागरी भी हिंसक संघर्षों को हवा देती है। यह एक ग्लोबल खेल बन जाता है, जिसे अपराधी गिरोहों से मदद मिलती है। किसी आंदोलन की वजह से हथियारों का चलन शुरू होता है, लेकिन हथियारों का यह चलन भी नई हिंसा को जन्म दे सकता है। हथियार जबरन वसूली का जरिया बन जाते हैं। देश के कई हिस्सों में ऐसा हो रहा है, जहां सरकारी विभागों तक से टैक्स वसूला जाता है। इसके अलावा दुश्मन देश की एजेंसियां आंदोलनों के लिए पैसा मुहैया कराती हैं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा हिंसक होने के लिए उकसाती हैं। इन तमाम वजहों से हमारे देश में हिंसक संघर्ष बढ़ रहे हैं। अगर हम इन्हें खत्म करना चाहते हैं, तो हमें शुरू से ही शुरुआत करनी होगी, यानी कमजोर लोगों के असंतोष को सुनना सीखना होगा। इस असंतोष को एक संवेदनशील शासन सही नीतियां अपना कर दूर कर सकता है, लेकिन इसके लिए इच्छा होनी चाहिए। भूमिहीन, पिछड़े और बेदखल लोगों का खयाल रखा जाए, उन्हें उनका हक हासिल हो और रोजगार मिले, तो हिंसा की बहुत सारी गुंजाइश खत्म हो जाएगी। यही तबका है, जिसके असंतोष पर हिंसा की राजनीति और अर्थशास्त्र पलते हैं। अगर यह भरोसा जाग जाए कि डेमोक्रेसी उनकी सुनती है, तो वे दूसरों के हाथों का खिलौना नहीं बनेंगे। असल में सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं है और हर कार्यक्रम इसी तबके के लिए शुरू किया जाता है, लेकिन दिक्कत अमल की है और वह पिछले साठ बरसों से बनी हुई है। हमें प्रशासन का एक नया ढांचा चाहिए, जो लोगों की बात सुनता हो, जिसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और जो करप्शन से आजाद हो। करप्शन अकेली ऐसी बुराई है, जो सारे सिस्टम को तबाह कर देती है। यह हर बुराई की मां है और कमजोर लोगों में नाइंसाफी का भाव पैदा करता है। इसका मुकाबला करने में नागरिक संगठनों का बड़ा रोल होना चाहिए और सरकार को इसे मान्यता देनी चाहिए। उन्हें प्रशासन का दोस्त समझा जाए।