Thursday, October 2, 2008

मुद्दा : सफलता से दूर सर्व शिक्षा अभियान

मुद्दा : सफलता से दूर सर्व शिक्षा अभियान

प्रवीण कुमार
वित्त मंत्रालय और योजना आयोग लगातार इस प्रयास में है कि सर्व शिक्षा अभियान के भारी भरकम खर्चे का ज्यादा बोझ राज्य सरकार उठाएं, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना दूर–दूर तक नहीं दिख रही। साथ ही यह खतरा भी मंडरा रहा है कि सर्व शिक्षा अभियान के दायरे को प्राथमिक शिक्षा से बढ़ाकर माध्यमिक शिक्षा तक करने का जो प्रस्ताव फिलहाल कैबिनेट के पास विचाराधीन है, उस पर भी कहीं आंच न आ जाए। दरअसल सर्वशिक्षा अभियान इन दिनों वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। बगैर वित्तीय व्यवस्था सुदृढ़ किये प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में ही इसका लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है, ऐसे में इसका दायरा बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं। फिर राज्य और केंद्र के बीच इस अभियान के खर्चे को लेकर एक मत की स्थिति अब तक नहीं बन पाई है। अभी इस अभियान के लिए केंद्र 65 और राज्य 35 प्रतिशत धन मुहैया करा रहा है। केंद्र 12वीं योजना 2012–19 में अपनी हिस्सेदारी घटा कर 25 फीसद करना चाहता है। किंतु राज्यों खासकर बिहार जैसे राज्यों की हालत देखते हुए यह संभव नहीं दिखता। केंद्र की मंशा तो 11वीं योजना में ही राज्य और केंद्र का अंशदान 50–50 प्रतिशत करने की थी किंतु राज्य सरकारों के संसाधनों की कमी के तर्क के कारण केंद्र को अंतत: झुकना पड़ा। आगे भी केंद्र को झुकना पड़े इसमें आश्चर्य नहीं, किंतु सवाल यह है कि केंद्र अगर योजना को मजबूरी की तरह चलाए और वित्तीय व्यवस्था के लिए केंद्र और राज्य इसी तरह नोंकझोंक करते रहें तो योजना के उद्देश्यों का क्या होगा?केंद्र विश्व की सबसे बड़ी इस योजना की शुरूआत कर वाहवाही भले लूटने पर अमादा हो किंतु सच्चाई यही है इस योजना के प्रति उसके सम्मान में इधर लगातार कमी आई है। फिर केंद्र वैश्विक बाजार की ताकतों के आगे नतमस्तक है। शिक्षा के मौलिक अधिकार और समान स्कूल प्रणाली की बातों को छोड़कर अब वह निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने की बात अधिक कर रहा है। केंद्र ने जिस जोर-शोर से इस अभियान की शुरूआत की थी, उतनी ही तेजी से वह अब उधर से लापरवाह हो रहा है। निजी क्षेत्र के प्राथमिक शिक्षा में बढ़ते दखल ने इस अभियान को कमजोर किया है, इसमें कोई दो राय नहीं। सरकार ने 2008–09 के वित्तीय वर्ष के वित्तीय बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए जो 13100 करोड़ रूपए आवंटित किये हैं, वे पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 71 करोड़ रूपए कम हंै। गौर करने वाली बात है कि इसी दौरान माध्यमिक शिक्षा के बजट में 2. 8 गुणा की वृद्धि की गई है। इसका अर्थ यही निकाला जा सकता है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को या तो कम करके आंक रही है या इसे पूरा मान कर चल रही है। सरकार की आंखें खोलने के लिए यह आंकड़ा काफी है कि 6 से 14 आयु वर्ष के आधे से अधिक बच्चे अभी भी स्कूल नहीं जाते। करीब 40 लाख बालिकाओं ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत दाखिला ही नहीं लिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशन, प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन यानी न्यूपा का सर्वेक्षण बताता है कि देश में 32 हजार स्कूल ऐसे हैं जिनमें एक भी छात्र नहीं हैं और इनमें से 23 हजार स्कूलों में छात्र इसलिए स्कूल नहीं जाते क्योंकि वहां शिक्षक नहीं है। न्यूपा के ही एक आंकड़े के अनुसार देश के एक लाख 30 हजार स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे हैं। यानी इस अभियान की राह में शिक्षकों की कमी भी एक बड़ी बाधा है। फिर जो शिक्षक हैं भी वे शिक्षाकर्मी, शिक्षामित्र जैसे नामों से जाने जाते हैं। इनकी नियुक्तियां तदर्थ या कामचलाऊ तौर पर की जाती हैं। योग्यता में सामान्य शिक्षकों की हैसियत रखते हुए भी इन्हें कम वेतनमान पर गुजारा करना होता है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य जहां 85 हजार शिक्षाकर्मी हैं, में इनका वेतन केवल हजार रूपए प्रति महीना है। 2008–09 के बजट पर गौर करें तो साफ है कि देश में सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत अब तक करीब 8 लाख 80 हजार शिक्षकों की नियुक्ति हुई है जबकि लक्ष्य करीब 11.5 लाख शिक्षकों की नियुक्ति का था। इनमें से करीब 36 हजार शिक्षकों को 2007–08 के दौरान 20 दिनों के प्रशिक्षण का लक्ष्य रखा गया था किंतु करीब 65 प्रतिशत ही लक्ष्य हासिल हो पाया। किताबों के वितरण, पेयजल की व्यवस्था, शौचालय का इंतजाम, पेयजल की व्यवस्था आदि क्षेत्रों में भी हमें पूरा लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। दरअसल सरकार योजनाएं तो बनाती है किंतु उसे सफल बनाने का दायित्व पूरा करना नहीं चाहती। सरकार के खर्च अन्य मदों में बढ़ते गए किंतु शिक्षा के क्षेत्र में कोठारी कमीशन की तय सीमा- सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 6 प्रतिशत- से यह नीचे ही रही।
source-[ 9/29/2008 12:04:05 AM] rastriya sahara

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