Monday, September 22, 2008

बेटियों के बिना दुनिया कैसी होगी


बेटियों के बिना दुनिया कैसी होगी
स्त्री-विहीन दुनिया कैसी होगी? इस सवाल को सार्वजनिक करते हुए हम उन आंकड़ों को देख सकते हैं, जो हाल के सर्वेक्षणों से निकल रहे हैं। पुरुष और स्त्री की गिनती में स्त्री वाला पलड़ा हल्का होता जा रहा है, यह संदेश आम लोगों तक सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा पहुंचाया जा रहा है। क्या इस संदेश से भारतीय नागरिकों के कानों पर जूं तक रेंगी? सामने यही नज़ारा है- भ्रूण हत्या, दहेज दहन या स्त्री हत्या को विभिन्न स्त्री-दोषों से जोड़कर अंजाम दिया जा रहा है। मेरे ख़याल में यह समझने के लिए अब कुछ भी बाकी नहीं बचा कि हमारे समाज में स्त्री का दर्जा क्या है। क्या पशु-पक्षियों को गर्भ में मारा जाता है? क्या उन्हें पैदा होने के तुरंत बाद जिबह कर दिया जाता है? क्या उन्हें डायन या चुड़ैल बताकर हलाक किया जाता है? यदि हमें पशु-पक्षियों से कोई सेवा या आहार प्राप्त करना होता है, तो उन्हें अच्छी से अच्छी खुराक देनी होती है, सुविधाजनक जगह देनी होती है, लेकिन औरत के लिए इसका उलटा नियम चलता है कि खाने, पहनने और रहने की जगह देने में पुरुष व्यवस्था शुरू से ही कोताही करने लगती है। बच्ची गरीब की हो या अमीर की, वह एक बोझ, जिम्मेदारी और पराई अमानत की तरह पिता के घर पलती है। कुदरत की दी हुई लड़की स्त्री-पुरुष के क्रोमोजोम के मिलन का परिणाम है, जिस पर हमारे देशवासियों का बस नहीं। साइंस और टेक्नॉलजी ने जो सुविधा गर्भ में पलने वाले भ्रूण के सामान्य और असामान्य परीक्षण के लिए प्रदान की थी, समाज की पुरुष व्यवस्था उसे लिंग परीक्षण के लिए अलादीन के चिराग के रूप में ले उड़ी। आलम यह है कि परिवार में भले असामान्य बेटा हो जाए, लेकिन सामान्य स्वस्थ लड़की नहीं चाहिए। वैसे इन बातों को हम सभी सच की तरह जानते ही हैं। लेकिन नहीं जानना चाहते उस सूत्र को, जिससे लड़की को मनुष्य के रूप में इतना हेय माना गया है कि उसका जीना बर्दाश्त के बाहर है। यह गजब की नफरत ही उस पर तब से कहर बनकर टूटने लगती है, जब कि वह गर्भ में हाथ-पांव तक नहीं हिला पाती। मगर वह जिंदा बच जाने की अदम्य शक्ति धारण किए रहती है और पैदा हो जाती है। सच मानिए, औरत बनते ही वह मर्द के आकर्षण का केंद्र बन जाती है। जिन प्रदेशों में लड़कियों की संख्या का आंकड़ा न्यूनतम अंक दिखा रहा है, औरतें उन्हें भी चाहिए। वे चाहिए सेवा, श्रम और सेक्स के लिए, वंश के लिए, बेटे पैदा करने के वास्ते। ऐसी औरतें खरीदकर लाई जा सकती हैं। ये ही पासा पलटने के मौके हैं और इनसे अर्थशास्त्र का मांग और पूर्ति का सिद्धांत खरीद-बिक्री को प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। समाज में कन्या वध का सिलसिला ऐसे ही जारी रहा, तो औरतें सोने के भाव बिकने वाली हैं और उनके रत्ती-रत्ती मांस की कीमत लगा करेगी। इसी आधार पर मैं दावे के साथ कहती हूं कि भारतीय माता-पिता लड़कियों को जन्म देना चालू कर देंगे। आखिर ऐसे ही तो तमाम कारण हैं कि माता-पिता लड़की के जन्म से बचना चाहते हैं। शास्त्रों की रीति-नीति पर चलने वाला हमारा समाज जब साइंस और तकनीक को शास्त्रों में घसीट ले गया, तो रूढि़यों की महिमा अपने आप साबित होती है। मनुस्मृति कहती है कि कन्या के रजस्वला होने से पहले ही उसे किसी पुरुष को दान कर दिया जाए। कुंआरी कन्या के समर्पण से माता-पिता को स्वर्ग मिलता है। अत: लड़की को पिता जन्म लेते ही शास्त्रों की नजर से देखने लगता है। इस बदलते समय में बेशक लड़कियों की शिक्षा का विधान है और उसे आर्थिक निर्भरता के लिए छूट भी दी जाती है (थोड़े ही अनुपात में) लेकिन इस आधुनिक व्यवहार पर शास्त्र और परंपराएं फिर शिकंजा कसने लगती हैं। मिसाल के तौर पर, बेटी की कमाई खाने वाला पिता नीच अधम के रूप में नरक में जाता है, क्योंकि पाप का भागी होता है। समाज जीते जी उसे नीची नज़र से देखता है। हमारा मानसिक अनुकूलन (कंडिशनिंग) हमें तर्क की इजाजत नहीं देता कि आखिर ऐसा क्यों होता है? अगर इस विधान की परतें खोली जाएं, तो सच सामने आ जाएगा- क्योंकि पिता कभी भी बेटी की कमाई नहीं खा सकता, इसलिए वह उसका उचित पालन-पोषण क्यों करे? उसे शिक्षा की वैसी ही सुविधा क्यों दे, जैसी बेटे को देता है? पराए घर भेजने के लिए बाध्य पिता अपनी बेटी को जायदाद में से हिस्सा भी क्यों दे? वह विवाह के समय अपनी हैसियत और इज्जत के मुताबिक वर पक्ष को धन-धान्य देता है, जिसे हम दहेज कहते हैं। क्योंकि अब इस लड़की को पति के घर जिंदगी बितानी है, जामाता ने लड़की के पिता का बोझ उतारा है, इसलिए वह पूज्य हुआ। पूज्य व्यक्ति को पिता ने कुंआरी कन्या दी है, यह उसकी अनिवार्य योग्यता है। सच मानिए, इन दोनों पुरुषों के बीच लड़की अपने शरीर से लगे गर्भाशय की अपराधिनी है, जिसको उसे तनी रस्सी पर चलते हुए हर हालत में पवित्र और अनछुआ रखना है। पवित्रता नष्ट होने के शक में उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है। कोई गौर नहीं करता कि इस अपवित्रता में एक पुरुष भी शामिल रहा होगा, वह क्यों मुजरिम नहीं है? यह अच्छी रही कि पहले हकों से खारिज करो, फिर खात्मा आप करें या ससुराल वाले करें। तोहमत लगाने के बहाने तमाम हैं। रूढ़ परंपराओं के तंबू तले हम बेटी बचाओ के नारे किसके लिए लगा रहे हैं? बेटी हमारी ताकत है, लेकिन संपत्ति का अधिकार न देकर हम किस सशक्तीकरण की बात कर रहे हैं? बेटियों को मारने का ग्राफ तो ऊपर ही चलता जा रहा है। मुझे लगता है कोई भी परिवर्तन तब तक कारगर नहीं होता, जब तक कि वह सहज रूप से सामान्य व्यवहार में न आए। पहले हमारा व्यवहार तो बदले। हम अपनी मेंटल कंडिशनिंग से तो आजाद हों। बेटी को सही नजरिए से, बराबरी के नजरिए से जिस दिन हम देखेंगे, यह भयानक संकट दूर हो जाएगा, जो समाज में उथल-पुथल मचा देने वाला है।

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

bhikariyo के प्रति समाज ही नहीं, सरकारों का रवैया भी अछूतों-सा है। इनके सुधार की बनी योजनाएं फ्लॉप हैं। सरकार ने भिक्षावृत्ति पर पाबंदी तो लगाई, किंतु उसने कभी भिखारियों के संबंध में अध्ययन कराना जरूरी नहीं समझा। यही कारण है, सरकार के पास इनकी आबादी तथा सामाजिक ढांचे के संबंध में कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार ने स्वीकार किया कि भिखारियों की संख्या के संबंध में कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। इनके संबंध में सारे अध्ययन गैर सरकारी संगठनों या स्वायत्त निकायों के जरिए ही सामने आए हैं। यह हालत तब है जब दुनिया में सबसे अधिक भिखारी भारत में हैं। यहां प्रत्येक हिस्से की सार्वजनिक जगहों पर ये दिख जाते हैं। जितने अधिक भिखारी बढ़े हैं, उसी अनुपात में भीख मांगने के तरीकों में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। आज के भिखारियों में बहुमत अपंग और बहुत गरीब लोगों की नहीं, बल्कि पेशेवर भिखारियों की है। जो मजबूरन भिखारी बनते हैं, उनके लिए कैसी व्यवस्था की जाए? इस संबंध में सुश्री मीरा कुमार इसे राज्य का विषय बताती हैं। ऐसा नहीं है कि राज्यों ने कुछ प्रयास नहीं किए, किंतु यह अधूरे मन से किए गए हैं। दिल्ली सरकार ने भीख देने वालों पर भी जुर्माने का फैसला किया, फिर भी असर नहीं हुआ। इसी तरह मुलायम सिंह के दौर में उ. प्र. में भिखारियों के सर्वेक्षण और पुनर्वास का निर्णय लिया था। सरकार द्वारा ‘भिक्षुक गृह’ खोले गए, किंतु सड़कों पर भिखारियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। कारण, भिखारियों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था का ठीक न होना था। रोजगार की ठीक व्यवस्था के बगैर भिखमंगों को उनके व्यवसाय से हटाना कतई संभव नहीं है, यह बात सरकार अब भी नहीं समझ रही है। दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क के मुताबिक, दिल्ली में 60 हजार भिखारी हैं। ‘एक्शन एड’ द्वारा चार साल पहले किए गए अध्ययन के मुताबिक मुंबई में तीन लाख भिखारी थे। इसी तरह बेगर रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, कोलकाता में 75 हजार से ज्यादा भिखारी हैं। इन भिखारियों में अपंग, गरीब, शौकिया और हताशा व निजी कुंठाग्रस्त मॉडल गीतांजलि नागपाल तथा आईआईटी इंजीनियर प्रफुल्ल चिपलुणकर जैसे लोग भी हैं! डीएसएसडब्ल्यू की रिपोर्ट बताती है कि कई ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट भिखारी भी हैं। ये अपनी मासिक आय बढ़ाने के लिए केवल सप्ताहांत में भीख मांगना पसंद करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली के 71 फीसद भिखारी गरीबी की वजह से भीख मांग रहे हैं, किंतु 66 प्रतिशत भिखारी शारीरिक रूप से तंदुरूस्त हैं। कई भिखारी तो ऐसे हैं, जो अब भिक्षावृत्ति को मजदूरी के विकल्प के तौर पर या इसे बेहतर मानकर अपनाए पड़े हैं। अध्ययन बताता है कि ज्यादातर भिखारियों की प्रतिदिन की औसत आय 90 रूपये से अधिक है, जो दिहाड़ी मजदूरों की आय से कहीं ज्यादा है। ज्यादातर भिखारी अब अपने काम को लेकर शर्म का अनुभव नहीं करते। वे इस वृत्ति को लाभदायक पेशा मानते हैं। डीएसएसडब्ल्यू और मुंबई के सोशल डेवलपमेंट सेंटर के सर्वेक्षण बताते हैं कि भीख मांगने वाले अब शर्माते नहीं, लेकिन यह अध्ययन पूरी सच्चाई बयान नहीं करते। डॉ. योगेश ठक्कर का अध्ययन कुछ अलग ही तस्वीर सामने लाता है। इसके अनुसार भिखारियों में मनोरोग का पाया जाना आम है। कई तरह की लतों का शिकार होना, अपराध-बोध जैसी समस्याएं भी इनमें खूब देखी जाती हैं। दरअसल, भीख मांगने का काम शौकिया हो या मजबूरी- समाज के लिए मंगतों की मौजूदगी सही तस्वीर पेश नहीं करती। भीख मांगना पारंपरिक रूप से भले ही सम्मानजनक पेशे की तरह भारतीय समाज में मौजूद हो, किंतु आज जीवनयापन का यह तरीका स्वीकार्य नहीं है। ‘भिखारी’ का अर्थ कानून की भाषा में सर्वथा पृथक है। कानून ऐसे व्यक्ति को भिखारी मानता है, जो गरीब जैसा दिखता हो। भिखारियों को अधिकतम दस वर्ष तक भिक्षुक गृहों में डालने का प्रावधान है। अमूमन इस कानून का दुरूपयोग होता है। विरोधी कहते हैं कि इस कानून के जरिए सरकार शहरों से गरीबों के सफाए की मुहिम चलाती है ताकि शहर अमीरों का बना रहे। इस कारण होता यह है कि भिखारियों के खिलाफ चलाए जाने वाले किसी भी अभियान के लपेटे में कूड़ा बीनने वाले से लेकर दिहाड़ी मजदूर तक आते हैं। सरकार को चाहिए कि भिखारियों का एक प्रामाणिक अध्ययन कराए। मजबूरीवश भिखारी बने लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने का कोई ढांचा विकसित करने तथा जो लोग रोजगार के अभाव में इस पेशे को अपनाते हैं, उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करने का प्रयास होना चाहिए। भिक्षुकगृहों में सरकार रोजगार की ट्रेनिंग का पुख्ता बंदोबस्त करे। भिखारियों के मनोविज्ञान का अध्ययन एवं उनके मनोवैज्ञानिक इलाज के उपायों पर भी गौर करना होगा।