Sunday, July 20, 2008

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं

बदलते समय ने रिश्तों के मायने बदल कर रख दिए हैं। क्योंकि लोगों में हर स्तर पर जागरूकता बढ़ी है, इसलिए समाज में रिश्तों को लेकर भी नज़रिये में बदलाव साफ देखा गया है। आज की युवा पीढ़ी समाज के परंपरागत बंधनों को तोड़ रही है। क्योंकि जुडिशरी भी समाज का ही एक हिस्सा है इसलिए उसका निर्णय भी समाज से प्रभावित होता है। हमारा समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है और उसकी हर व्यवस्था पुरुष का ही समर्थन करती रही है। आज स्त्री समाज के बंधन तोड़ रही है और नई व्यवस्था का दामन थाम रही है। लड़कियां विवाह संस्था से बाहर निकलना चाहती हैं। स्त्रियां जैसे-जैसे शिक्षित होंगी वैसे-वैसे विवाह संस्था से दूर होती जाएंगी। दरअसल महिला की देह पर कब्ज़े के लिए विवाह संस्था का गठन हुआ। पिछले दिनों माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर बच्चा अपने पिता की जात से जाना जाएगा और वहीं दूसरे फैसले में कहा गया कि जात-पात को खत्म कर दिया जाए। न्यायपालिका में एक ही बात को लेकर विभिन्न मत हैं। दरअसल कानून की जटिल प्रक्रिया स्त्रियों की नई-नई समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है। कानून ने स्त्रियों के साथ कोई बहुत अच्छा सुलूक नहीं किया है। बल्कि उनका मज़ाक ही बनाया है। कानूनों की बेहूदगी देखिए - 1975 में टर्मिनंसी ऑफ प्रेगनंन्सी ऐक्ट बना जिसमें कहा गया कि महिला पति की सहमति के बिना अपनी मर्जी से अबॉर्शन करा सकती है। वहीं हिंदू मैरिज ऐक्ट मे कहा गया कि अगर पत्नी ऐसा करती है तो यह मेंटल क्रूअल्टि है और अगर पत्नी बिना बताए फैसला ले ले तो पति पत्नी को इस आधार पर तलाक दे सकता है। इस पर किसी कानूनविद ने बहस की ज़हमत तक नहीं उठाई कि इसकी आड़ में पति, पत्नी पर क्या क्या ज़ुल्म ढा सकता है। इंडियन पीनल कोर्ट की धारा 497 में व्याभिचार के बारे में कानून है, जिसमें कहा गया है कि किसी दूसरे की पत्नी के साथ बिना उसके पति के सहमति से संबंध बनाना नाजायज़ है क्योंकि वह पति की संपत्ति है। वहीं दूसरी ओर लिखा गया है कि अगर विवाहित पुरुष किसी अविवाहिता या तलाकशुदा महिला से संबंध बनाता है तो वह सही है। अगर बात विवाह संबंधी कानूनों की करें तो 16 साल की लड़की अपनी मर्ज़ी से संबंध बना सकती है। अगर पत्नी 15 साल की है तो पति का उससे संबंध बनाना रेप नहीं माना जाएगा और अगर पत्नी 12 से 15 साल की है तो उससे संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा, जिसमें दो साल की सज़ा का प्रावधान है। और वहीं किसी सामान्य लड़की के साथ रेप करने पर सज़ा का प्रावधान 7 साल रखा गया है, यानी एक ही जुर्म के लिए विवाह संस्था के तहत सज़ा का प्रावधान कम है। विवाह संस्था के बने रहने से महिलाओं के खिलाफ अनेक अत्याचार हुए हैं। इसीलिए महिलाओं की रुचि विवाह संस्था में कम होती जा रही है। विवाह संस्था के टूटने का एक कारण यह है कि इसके तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने में पुरुषों को आसानी रहती है। क्योंकि घर की सारी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के ज़िम्मे ही रहती हैं। लेकिन अब समीकरण बदल रहे है। महिलाओं ने अपने अधिकार मांगने शुरू कर दिए हैं। यही वजह है कि अब वह सामाजिक बंधनों का खुलकर विरोध कर रही हैं। और यहीं से एक नए समाज के गठन का रास्ता साफ होता है। यहीं से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना बदलेगी और पूंजी के समीकरण भी बदलेंगे और यह बदलाव ऐतिहासिक होगा। कानून को बदलते सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखकर खुली सोच से काम करने की ज़रूरत है।

घर-घर की कहानी में ज़ुल्म का चेहरा

सास और बहू के किस्से तो हमारे देश में हर किसी की ज़ुबान पर रहते हैं। इस रिश्ते की उलझनों ने पौराणिक दर्जा हासिल कर लिया है। लेकिन यह किस्सा इतना सीधा नहीं है। इसमें एक और पात्र शामिल है- ननद। यूपी की एक अदालत में चल रहा मामला इस लिहाज़ से गौरतलब है। मिर्ज़ापुर की अदालत में दहेज हत्या के एक मामले की सुनवाई चल रही थी। शादी के एक बरस के भीतर लड़की की मौत हो गई। दहेज उत्पीड़न का जो आरोप ससुराल वालों पर लगा, उसमें ननद की भूमिका सबसे ज़्यादा बताई गई। इधर आंकड़े भी इसी तरह की बात कह रहे हैं। पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिला उत्पीड़न में हमउम्र महिलाएं ज़्यादा दोषी पाई गईं। यूपी पुलिस के पूर्व महानिदेशक के. एल. गुप्ता का कहना है कि इसकी वजह टीवी सीरियल हैं, जिनमें ननद को ताकतवर रोल में दिखाया जाता है। यूपी के क्राइम रेकॉर्ड के मुताबिक दहेज हत्या के आरोप में जिन 1069 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया, उनमें 488 यानी 45 पर्सेंट की उम्र 18 से 30 बरस के बीच थी। 45 से 60 बरस के बीच की आरोपी महिलाओं की तादाद 205 यानी 19 पर्सेंट थी और इससे उम्रदराज़ महिलाओं की तादाद सिर्फ तीन। यही बात दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी देखी जा सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक कुल गिरफ्तार 3189 महिलाओं में 18 से 30 बरस की 1296 (40 पर्सेंट), 30 से 45 बरस की 1327 (41 पर्सेंट) और 45 से 60 की 544 (19 पर्सेंट) थीं। इससे ज़्यादा उम्र की महिलाओं की संख्या सिर्फ 13 थी। स्टेट क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के एस.पी. जयनारायण सिंह का कहना है कि दहेज उत्पीड़न में ननद के साथ जेठानी की भूमिका भी पाई गई है। साइकॉलजिस्ट हरजीत सिंह का कहना है कि उनके पास भी ननदों द्वारा सताई गई महिलाएं आती हैं। ननदों को भाई और मां से समर्थन हासिल होता है। हर जेल में दहेज हत्या की आरोपी महिलाएं कैद हैं। वैसे यह किस्सा पुराना हो चुका है कि परिवार में आई नई सदस्य को पुरानी सदस्यों के हमले झेलने पड़ते हैं। दहेज, बेटा पैदा करने का दबाव और कई बहाने हैं, जो हिंसा में बदल जाते हैं। यह कहावत शायद ही किसी ने नहीं सुनी होगी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। हमें यहां कुछ मामलों पर विचार करने की ज़रूरत है। जब बहुओं को दहेज के लिए तंग किया जाता है या मार डाला जाता है, तब उनका पति क्या कर रहा होता है? क्या उसकी सहमति के बिना ही मां और बहन उसकी पत्नी को सताते हैं? ज़ाहिर है, यह सब उसकी रज़ामंदी से ही होगा। हमारे पुरुष प्रधान समाज में मां अपने बेटे से ताकत हासिल करती है और बहन भाई से। अगर उसकी सहमति न हो तो इनकी क्या मज़ाल कि चूं भी करें। आमतौर पर पुरुष उदासीन बना रहकर अपना उल्लू सीधा करता है। मां उसका खयाल रखती है, बहन उसकी सेवा करती है और पत्नी तो है ही दासी। चुप रहने का फायदा उसे मिलता है, इस तरह वह घर के अंदरूनी झगड़ों को सास, बहू, ननद या औरतों का लफड़ा बताकर बेमतलब या तुच्छ ठहरा देता है और किसी भी नैतिक दबाव से आज़ाद होकर चैन की ज़िंदगी जीता है। यह एक शातिर चाल है, जो उत्पीड़न का जाल रच देती है। इसमें हमारे समाज की वे औरतें शामिल हैं, जो पितृसत्ता की सोच को किसी मशीन की तरह अपना लेती हैं। इसमें वह पुरुष शामिल है, जिसकी सोच आमतौर पर यही है कि पत्नी को हर हाल में परिवार में खप जाना चाहिए। इस माहौल में शादी का मतलब दो व्यक्तियों का पार्टनर बनना नहीं है। यह एक पारिवारिक दायित्व है और परिवार पितृसत्ता का सबसे बड़ा औज़ार बना हुआ है। ज़रा ननदों के पुरुषवादी रोल पर गौर कीजिए। अगर वे शादीशुदा हैं, तो ससुराल में खुद उत्पीड़ित हो सकती हैं। लेकिन मायके में वे मां-बाप और भाई के बीच खुद को सत्ता संपन्न महसूस करने लगती हैं। यह एक भ्रमजाल ही होता है, क्योंकि अगर वे मायके में आकर बसना चाहें, जायदाद में अपना हिस्सा मांगें या भाई के बराबर हकों की मांग कर बैठें, तो असल सत्ता उसे भी दूध की मक्खी की तरह छिटक देगी। लेकिन इस सचाई का अहसास उसे नहीं होता। इसकी वजह क्या है? असल में पितृसत्ता की हकीकत को लांघ पाना लड़कियों के लिए मुश्किल होता है। वे आसान रास्ता चुनती हैं और चुपचाप चलती रहती हैं। चाहे वह कोई भी हो, परिवार की महिला सदस्य के निजी अधिकार क्या हैं? निजी अधिकारों का सम्मान हमारे परिवारों की बुनियाद में ही नहीं है। हमारी परंपरा में राखी और करवा चौथ जैसे त्योहार भाइयों और पति पर गौरव करने की सीख देते हैं। वह औरत धन्य है, जिसके भाई हैं। तब वह औरत भाई की पत्नी पर भी रौब जमाएगी। इसी तरह वह औरत भी धन्य है, जिसका पति है। तब वह औरत उस औरत को कमतर ही समझेगी, जो अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा है। यही है पितृसत्ता का खेल, जिसमें पुरुष के पास सूरज की तरह रोशनी होती है। महिलाएं उससे रोशनी पाकर, छीनकर, लूटकर या मांगकर खुद को रोशन करती रहती हैं। शादीशुदा लड़कियां इसे अपनी ज़िम्मेदारी मानती हैं कि माता-पिता को प्यार दें। लेकिन अगर उन्हें साथ रखने या आर्थिक सहयोग की ज़रूरत पड़े, तो वे इसे भाइयों का फर्ज़ समझती हैं। अगर बराबरी की ज़िम्मेदारी नहीं है, तो बराबर की हैसियत भी नहीं होगी। इसीलिए स्त्री समुदाय को ताकतवर बनाने के लिए ज़रूरी है कि उधार की ताकत उनके पास न हो। वे खुद पर भरोसा करना सीखें और काबिलियत हासिल करें। तब वे पति या भाई पर नाज़ करके रह जाने की बजाय बराबरी के रिश्ते बनाएंगी। तब उन्हें यह भी समझ आएगा कि भाई या बेटे की पत्नी का अपना वजूद है, जिसे छीना नहीं जाना चाहिए। इसी तरह बहू भी फिल्मी किरदारों की तरह यह नहीं सोचने लगेगी कि घर में आते ही चाबी उसे मिल जानी चाहिए। वह इस चाबी से सत्ता का राजपाट हासिल करने का झूठा ख्वाब छोड़कर अपनी तिजोरी तैयार करना चाहेगी। असली मुद्दा यही है कि हमारा समाज हर लड़की को बराबर की नागरिक बनाए।

असली गुनाह की पहचान

असली गुनाह की पहचान
महिला तथा बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी विजयी मुद्रा में होंगी। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने आखिरकार वेश्यावृत्ति के खिलाफ कानून में प्रस्तावित संशोधन पर सहमति की मुहर लगा दी है। इस प्रस्ताव पर दूसरे लोगों के अलावा खुद सरकार में शामिल मंत्रियों तथा सांसदों ने ऐतराज उठा दिए थे। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का कहना था कि यदि ग्राहकों को दंडित किया गया (जैसा कि मसविदा बिल में प्रावधान है) तो इस व्यवसाय में लगी महिलाओं की रोजी-रोटी का खतरा पैदा हो जाएगा। इस पर रेणुका चौधरी का तर्क था कि यदि इस व्यवसाय पर लगाम लगानी है तो सिर्फ महिलाओं पर कार्रवाई करना सही नहीं है क्योंकि ज्यादातर महिलाएं मजबूरियों के चलते या धोखे से इस पेशे को अपनाती हैं। विरोध का जो स्वर उठा उसमें एक अहम मुद्दा था इस व्यवसाय में लगी महिलाओं के लिए वैकल्पिक रोजगार तथा पुनर्वास के इंतजाम का। सरकार भी आश्वस्त नहीं थी कि वह इसे कहां तक पूरा कर पाएगी। जब विवाद बढ़ा तो मंत्रियों का एक ग्रुप गठित किया गया, जिसकी अगुआई होम मिनिस्टर शिवराज पाटील कर रहे थे। टीम के अन्य सदस्यों में शामिल थे कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर, अम्बुमणि रामदॉस और मीरा कुमार। यह टीम इस नतीजे पर पहुंची कि वेश्या को अपराधी नहीं, पीड़ित माना जाए तथा ग्राहक को कानून के दायरे में खींचा जाए और उसकी जवाबदेही तय हो। अनैतिक देह व्यापार में सबसे पहले नैतिक और अनैतिक की जो सीमा तय होती है, वह ध्यान देने लायक है। पुरुषों और महिलाओं के लिए नैतिकता के मानदंड अलग-अलग तथा गैरबराबरी वाले हैं। पुरुष अगर कोठे पर जाता है तो उसे माफ किया जा सकता है, लेकिन कोठे पर बैठने वाली महिला को पतिता कहा जाएगा। मौजूदा कानून में सारा दोष पेशा करनेवाली महिला पर आता है। प्रस्तावित बिल उसमें संशोधन करके कोठा मालिक या मालकिन तथा दलालों को निशाने पर लाता है। ग्राहकों को भी सजा के घेरे में लिया गया है। पुरुष, जो इस व्यवसाय में खरीदार है, हमेशा विवादों से परे रहा है। वेश्यावृत्ति की चर्चा में सिर्फ महिलाएं घसीटी जाती रही हैं। प्रस्तावित संशोधित कानून में मानव तस्करी के खिलाफ सख्त सुझाव हैं, जिसमें जुर्म साबित होने पर दस साल की सजा, एक लाख रुपये जुर्माना या संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है। मानव तस्करी को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। नाच-नौटंकी या देवदासी के नाम पर होने वाली खरीद-फरोख्त को भी इस कानून के दायरे में शामिल किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक हर साल सात से दस लाख लोगों की तस्करी होती है। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे होते हैं, जिनका यौन शोषण होता है। वेश्यावृत्ति के मसले पर जब भी समाज में बहस चलती है, तो वह इस सवाल पर ही केंद्रित हो जाती है कि वेश्यावृत्ति कानूनी होगी या गैरकानूनी। कुछ लोग चाहते हैं कि इसे एकदम खत्म कर दिया जाए, जबकि दूसरा खेमा पूरी छूट के पक्ष में है। लेकिन हमारे देश में असल मुद्दा है अपराधीकरण से मुक्ति का, जो हालात तस्करी की जमीन तैयार करते हैं या लोगों को इस जाल में फंसने के लिए मजबूर करते हैं उन्हें खत्म करने का। जब इस बिल पर पहली बार चर्चा शुरू हुई तो एक तबके की ओर से यह कहा गया कि अगर यह कानून बना तो इसके चलते इस पेशे पर असर पड़ेगा और बेरोजगारी की समस्या खड़ी होगी। बेरोजगारी वाकई हमारे देश की एक बड़ी समस्या है। वह सिर्फ बार बालाओं या यौन व्यवसाय में लगे लोगों का मसला नहीं है। बेरोजगार युवाओं की बड़ी फौज सड़क पर है। बेरोजगारी ने करोड़ों बच्चों को बाल मजदूर बनाया है और अस्सी साल का बुजुर्ग भी रिक्शा खींचता है। किसानों की आत्महत्या की खबरें किसने नहीं पढ़ी? लिहाजा बेरोजगारी के साथ इस मुद्दे को नत्थी कर देने से समस्या को संबोधित नहीं किया जा सकेगा। एक सवाल इच्छा का भी उठता है कि कोई स्त्री अपनी मर्जी से भी इस पेशे को अपना सकती है। निश्चित ही यह एक पहलू है लेकिन फिर यह जानना चाहिए कि इच्छा होने या न होने के भी कारण होते हैं। इच्छाएं अपने परिवेश में ही तैयार होती है, वे जन्मजात नहीं होतीं। हमारे परिवेश में स्त्री को सिर्फ 'देह' होने की और उसी में सीमित रह कर सोचने की सीख तरह-तरह से दी जाती है। वह अपने शरीर के मायाजाल में उलझी रहे तो पुरुष प्रधान समाज का फायदा ही है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसमें नए-नए आयाम जोड़े हैं। स्त्री भी खुद को या तो श्रद्धा की वस्तु समझती है या फिर पुरुषों का खिलौना। वह खुद को आकर्षण के केन्द्र में बनाए रखने की मानसिकता का शिकार हो जाती है, जबकि उसकी यह कोशिश पुरुष को केन्द्र में ला देती है। दूसरी तरफ औरत के माता होने को महिमा मंडित किया जाता है और इस तरह हर बात औरत को औरत बने रहने के लिए प्रेरित करती है। कुल मिलाकर देखें तो माहौल ऐसा है कि महिलाएं खुद अपनी क्षमताओं को नजरअन्दाज करना सीख जाती हैं। उनकी इच्छा की बात कर उन्हें देह में बदल दिया जाता है। इसे ही वर्चस्व की राजनीति कहते हैं, जिसमें पीड़ित खुद ही उत्पीड़क की इच्छा और मानसिकता से लैस हो जाता है। आज औरतों और बच्चों की तस्करी नशीले पदार्थों की तस्करी की तरह भारी मुनाफे वाला व्यवसाय बन गया है। देह व्यापार में लगी औरतों में साठ प्रतिशत नाबालिग बताई जाती हैं। इन बच्चियों की इच्छा कैसे पूछी जाती है इसका हम अंदाजा लगा सकते है। कई रिसर्च या सर्वे रिपोर्टें आ चुकी हैं जिनसे साबित होता है कि इस व्यापार में हालात के मारे लोगों की संख्या ही ज्यादा है। जो लोग पैसा फेंककर इन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं, वे भी कानून के शिकंजे में आएं, यह जरूरी था। प्रस्तावित कानून में यह इंतजाम किया गया है। लेकिन मर्दवादी मानसिकता से ग्रस्त रक्षक उसे कितना लागू करेंगे या दूसरों को लागू करने देंगे यह संदेह के घेरे में है। इस मामले में पुलिस की भूमिका पहले ही उजागर हो चुकी है। कानून तो बन जाएगा, लेकिन जाहिर है, बात वहीं पर खत्म नहीं होगी।

बचपन और अपराध

बचपन और अपराध
जिस देश की कानून-व्यवस्था में अपने नागरिकों के प्रति कोई सम्मान का भाव न हो, जहां अमीरों के बड़े से बड़े अपराध के बावजूद उनकी सार्वजनिक गिरफ्तारी तक न होती हो और निरपराध होने के बावजूद गरीब अभियुक्तों को पूरी जिदगी जेल की सलाखों के पीछे गुजार देनी पड़ती हो, वहां किसी आरोपी या सजायाफ्ता व्यक्ति के बच्चों की स्थिति के बारे में सोचने की फुरसत भला किसके पास होगी। किसी भी सभ्य समाज के लोग इस सूचना से चकित हो जाएंगे कि भारत में ऐसे बच्चों की तादाद सैकड़ों में नहीं हजारों में है जिन्हें अपना पूरा बचपन जेल की सलाखों के पीछे सिर्फ इसलिए गुजारना पड़ता है कि उनकी मां किसी अपराध की सजा भुगत रही है, या सिर्फ उसपर किसी अपराध में शामिल होने का आरोप है। इससे कहीं बड़ी तादाद ऐसे बच्चों की है, जो माता-पिता में से किसी एक के या दोनों के ही जेल में बंद होते हुए जेल से बाहर अपना जीवन गुजारते हैं और अक्सर कच्ची उम्र में ही अपराध की गलियों में भटक जाते हैं। यही नहीं, इससे सैकड़ों गुना ज्यादा बच्चे जीवन में अपनी मेहनत, कौशल और बुद्धि के बल पर गुजारा करने का हौसला इस वजह से खो बैठते हैं कि माता-पिता के जिस संबल पर उनके पूरे मनोविज्ञान की बुनियाद रखी जानी होती है, वह बचपन में ही टूट-बिखर चुका होता है। कुछ वर्दीधारी अजनबी लोग अगर किसी बच्चे के सामने उसकी मां या बाप को पकड़कर उसकी अमानुषिक पिटाई करें तो इस संसार में अच्छाई के मूल्य पर उसकी कितनी आस्था रह पाएगी? शहरी मध्यवर्ग को इस वर्णन में शायद अतिरेक नजर आए, लेकिन गांवों-कस्बों में यह श्य आम हुआ करता है कि कच्ची शराब चुआने, शराब बेचने या चोरी-चकारी करने के जुर्म में पुलिस वाले किसी को पकड़ लेते हैं और भीड़ के सामने उसकी हड्डी-पसली एक करके समाज से ‘बुराई दूर करने का प्रयास’ करते हैं। अक्सर ऐसे मामले पकड़े गए व्यक्ति की माली हालत पर निर्भर करते हैं। जैसे ही वह कुछ हरे-हरे नोट पुलिस वालों तक पहुंचने का इंतजाम कर देता है, वैसे ही शक की सुई उसकी तरफ से हटकर किसी और दिशा में घूम जाती है। भारतीय पुलिस की दशा कैसे सुधारी जाए, इस बारे में तो शायद विधाता की भी अबतक कोई ठोस राय नहीं बन पाई होगी, लेकिन किसी आरोपित व्यक्ति को बचाने के लिए हाथ-पैर जोड़ने आई उसकी पत्नी या बहन के साथ थाने में बलात्कार न हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की पहल पर दो-तीन साल पहले कुछ उपाय किए गए हैं। ठीक ऐसे ही उपाय उन बच्चों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए भी किए जाने चाहिए, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि उनके मां-बाप को कुछ अनजान-अजनबी लोग घेरकर पीट क्यों रहे हैं और अपराध या दंड जैसी किसी चीज के बारे में रत्ताी भर भी समझ पैदा होने से पहले ही उनकी जिदगी की दिशा तय हो चुकी होती है। ऐसे मामलों में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा दिए गए दोनों सुझावों- बच्चों के सामने उनके माता-पिता से कोई पूछताछ न करने और बच्चों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विशेष बाल पुलिस इकाई गठित करने- पर गंभीरता से अमल किया जाना चाहिए।

एड्स पर स्वीकारोक्ति

एड्स पर स्वीकारोक्ति
एड्स एवं एचआईवी ये दो शब्द पिछले करीब दो दशकों से पूरी दुनिया को आतंकित करते रहे हैं। तथाकथित एचआईवी विषाणु से उत्पा होने वाले एड्स को लेकर इतना प्रचार हुआ और विा स्वास्थ्य संगठन ने इतना व्यापक कार्यक्रम चलाया कि तमाम देशों को अपने स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन करने को बाध्य होना पडा। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा किसी एक बीमारी से जुड़े कार्यक्रम पर धन झोंका गया है तो वह एड्स है। हालांकि आरंभ से ही एड्स के भय को अनावश्यक करार देने वाले भी रहे हैं, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। अब अपने जीवन का एक बडा हिस्सा एड्स के विरूद्ध लड़ने में बिताने वाले डॉ. केविन डी. कॉक ने कहा है कि एचआईवी विषाणु से होने वाला खतरा बदल गया है। उनके अनुसार यह विषाणु अब केवल समलैंगिकों, नशाखोरों और वेश्याओं व उनके ग्राहकों तक सीमित हो गया है। एड्स को सबसे बड़ी महामारी मानने वालों में डॉ. केबिन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिनकी भाषा बदली है, इसके सबसे बडे प्रचारक संयुक्त राष्ट्र ने ही कुछ महीने पहले कहा था कि विा भर में एचआईवी के मामले घटे हैं। उसने 4 करोड़ से घटकर 3 करोड़ 30 लाख होने का आंकडा भी दिया है। इन दोनों बातों में अभी भी एचआईवी एवं एड्स के खतरे को स्वीकार किया गया है। वास्तव में दुनिया भर में ऐसे लोग अब खड़े हो चुके हैं जो एचआईवी की कल्पना, उसके आधार पर बुनी गई बीमारी एवं उसकी संख्या की भयावह तस्वीर को पूरे मनुष्य समुदाय के लिए धोखाधड़ी करार दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अभी भी जो आंकडा दे रहा है वह संदिग्ध है, क्योंकि ये आंकड़े उन एनजीआ॓ द्वारा जुटाए गए हैं जो कि एड्स के नाम पर करोडों का कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयं भारत में ही यह साफ हो चुका है कि जितने एचआईवी संक्रमण की संख्या यहां दी गई उतनी है ही नहीं। जिस समय एड्स का नाम अस्तित्व में आया तब यह कहा गया था कि एशिया की आबादी ज्यादा होने के कारण वहां यह बड़ी महामारी होगी। इसमें भारत एवं चीन का नाम लिया गया था। हालांकि ये दोनों बातें गलत साबित हुईं, लेकिन इस बीच एशिया के देशों ने एड्स के नाम पर न जाने कितना धन खर्च किया। स्वयं भारत ने स्वास्थ्य मंत्रालय में अलग से राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाम से एक विभाग ही कायम कर दिया। भारत में काम की जो बातें पर्दे के पीछे थीं उसे विज्ञापनों के माध्यम से बच्चों तक पहुंचा दिया गया। कंडोम के विज्ञापन को सामाजिक सेवा बना दिया गया। इससे नैतिक हानि हुई और सामाजिक मर्यादाएं ध्वस्त होने से परंपरागत व्यवस्था की चूलें हिल गयीं। बच्चों को विघालयों में सेक्स शिक्षा देने के पीछे सबसे बडा तर्क एड्स जागरूकता को ही बनाया गया। अब डॉ. केविन कह रहे हैं कि लोगों को जागरूक करने पर धन लगाने से ज्यादा जरूरी है कि खतरे की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को निशाना बनाया जाए। यानी जन जागरूकता के नाम पर जो कुछ किया गया वह व्यर्थ था। अगर एचआईवी वाकई है तो यह सेक्स के मामले में व्यभिचार करने वालों, खतरनाक नशे का सेवन करने वालों को हो ग्रसित करता है। भारत के आम आदमी को परंपरागत रूप से इतनी सीख मिली हुई है।

हिन्दू विवाह कानून

हिन्दू विवाह कानून
उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू विवाह कानून की घातक खामियों की आ॓र ध्यान खींचकर निश्चय ही देश पर उपकार किया है। न्यायालय ने हिन्दू समाज में बढ़ती तलाक की प्रवृत्तिा एवं छोटी-छोटी बातों पर पति-पत्नी के बीच अलगाव पर चिता व्यक्त करते हुए उसकी जड़ 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में तलाशी है। वास्तव में इस अधिनियम में तलाक के लिए जो आधार बनाए गए हैं वे हिन्दू समाज की परंपरा से मेल नहीं खाते और नई जीवन शैली में इसका प्रावधान समाज को तोड़ने का आधार बन रहा है। मसलन, इसमें पत्नी के विाास को धोखा, निर्दय व्यवहार, परित्याग, आदि या पति द्वारा दुनियादारी से संन्यास लेने, मानसिक रोग, कुष्ट या अन्य छूत की बीमारियों के आधार पर तलाक लेने की बात है। दोनों की सहमति से तलाक लिया जा सकता है। तलाक के ये प्रावधान पश्चिमी कानूनों से उधार लिये गए हैं जो हमारी मानसिकता से मेल भी नहीं खाते। न्यायालय की यह टिप्पणी वाकई र्मािमक है कि हमारे दादा-परदादा भी मानसिक रोग से ग्रस्त होते थे लेकिन उनकी पत्नियां कभी उन्हें छोड़कर नहीं जाती थीं। वास्तव में परिवार हमारी अंत:शक्ति का मूलाधार रहा है। हिन्दू विवाह कानून उस मूलाधार पर आघात पहुंचाने की भूमिका अदा कर रहा है। न्यायालय की इस टिप्पणी में शायद अतिशयोक्ति दिखाई पड़े कि अब तो शादी होने के पहले ही तलाक के कागजात तैयार रखे जाते हैं ताकि समय आने पर उपयोग किया जा सके, लेकिन यह पश्चिम के प्रभाव से युवक-युवतियों की भयावह सोच को उद्घाटित करने वाला है। जिस ढंग से तलाक की संख्या बढ़ रही है वह वाकई चिताजनक है। अकेले जीने की प्रवृत्तिा का समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मानसिक और व्यावहारिक जीवन में इसके त्रासदपूर्ण परिणामों के अनुभव आए दिन सामने आते हैं। साधु-संतों और वैरागियों के अलावा एकल जीवन हमारी जीवन शैली का अंग नहीं था और न समाज की रचना ही उसके अनुकूल है। तलाक की पीडा केवल पति-पत्नी को ही नहीं भुगतनी पड़ती, उनका मूल परिवार भी इससे प्रभावित होता है, क्योंकि परिवार एवं रिश्तेदारी का भावनात्मक जुडाव अभी भी हमारे समाज की महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में कायम है। बच्चों के लिए तो तलाक वाकई एक त्रासदी ही साबित होता है। न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा है कि अंत में बच्चा ही कष्ट झेलता है। अगर वह लड़की है तो वह कष्ट और अधिक हो जाता है, खासकर तब जब लड़की की शादी का वक्त आता है। भारतीय परंपरा में पति-पत्नी के दूर रहने की अवस्था यानी विरह की पीडा पर न जाने कितनी मर्मस्पर्शी रचनाएं हैं और तलाक तो विरह को स्थायी बना देता है। प्रश्न है कि क्या न्यायालय की टिप्पणियों के मद्देनजर हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन कर तलाक के प्रावधानों को और कडा बनाने की पहल होगी? विवाह कानून का उद्देश्य विवाह प्रथा एवं परिवार परंपरा को सशक्त करना होना चाहिए। अगर यह विवाह प्रथा को ही मजाक बना रहा है एवं इसके प्रावधानों से परिवार परंपरा ध्वस्त हो रही है तो निश्चय ही इस पर पुर्निवचार होना चाहिए।

अपराध और दंड

पिछले दिनों अपराध और उनकी सजा से संबंधित दो खबरें प्रकाशित हुईं। एक खबर यह थी कि पुलिस ने छह साल के एक बच्चे पर चोरी का केस दर्ज किया और उसे थाने में बंद रखा। कानूनन सात साल से कम उम्र के बच्चे पर आपराधिक मामले नहीं दर्ज किए जा सकते। पुलिस ने इतनी सक्रियता क्यों दिखाई? क्योंकि वह एक गरीब और अनाथ बच्चा था। क्योंकि शिकायत करने वाली महिला हाई प्रोफाइल थी। उसने छोटे से बच्चे के एक छोटे से अपराध (बिजली के स्विच की चोरी) की शिकायत सीधे पुलिस स्टेशन में क्यों की? क्योंकि हाई प्रोफाइल होने के बाद सामाजिक सहिष्णुता खत्म हो जाती है। पुलिस ने बच्चे की उम्र की जांच कराए बिना उसे दस साल का माना, केस दर्ज किया और बच्चे को गिरफ्तार किया। पुलिस की इस लापरवाही का लाभ किसे मिला? उस हाई प्रोफाइल महिला को, जिसके अहंकार की तुष्टि हुई। इसका नुकसान किसे हुआ, उस बच्चे को जो बिना मां-बाप का है और जिसकी कोई अर्थिक या सामाजिक हैसियत नहीं है। ठीक इसके बाद आप उस दूसरी खबर पर नजर डालें, जिसमें अहमदाबाद की एक अदालत ने बीजल जोशी रेप केस में पांच लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई है। यह पांच साल पुराना मामला है, जिसमें एक अमीर व्यापारी के लड़के ने अहमदाबाद में 'न्यू ईयर ईव' पर अपनी 'प्रेमिका' के साथ गैंग रेप किया। उसने ऐसा क्यों किया? क्योंकि उसकी उस पूरी मित्रमंडली के लिए 'प्रेमिका' का यही उपयोग था। इस मामले में केस दर्ज होने के बावजूद अहमदाबाद की पुलिस ने एक हफ्ते तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। पुलिस की उस निष्क्रियता की क्या वजह थी? वजह यह थी कि जिन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था, वे रईस लोग थे। वे होटलों के मालिक थे, वे बंगला, गाड़ी और पैसे वाले थे। ये दो मामले हैं, जिनके बारे में संयोगवश खबरें एक साथ आ गई हैं। हमेशा नहीं, लेकिन ऐसी अनेक घटनाएं हम अपने आसपास देखते हैं, जिनमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसियां- खास कर पुलिस, ताकतवर या असरदार लोगों के हितों के संरक्षण के लिए काम करती नजर आती है। सब नहीं, पर ऐसी अनेक घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें पैसे, पहुंच और अधिकार संपन्न लोग आम नागरिकों की तुलना में ज्यादा बदमिज़ाज और असहिष्णु नजर आते हैं, या कानून तोड़ते नजर आते हैं। आजाद हिंदुस्तान में विकसित हुए ये कैसे मूल्य हैं जिनके अनुसार ताकतवर होने का मतलब है गलत करने की छूट और तंत्र का सिपाही होने का मतलब है ऐसे लोगों की हित रक्षा। जब तक हम इसका जवाब नहीं ढूंढेंगे, हमें असली लोकतंत्र नहीं मिलेगा।