Sunday, July 20, 2008

हिन्दू विवाह कानून

हिन्दू विवाह कानून
उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू विवाह कानून की घातक खामियों की आ॓र ध्यान खींचकर निश्चय ही देश पर उपकार किया है। न्यायालय ने हिन्दू समाज में बढ़ती तलाक की प्रवृत्तिा एवं छोटी-छोटी बातों पर पति-पत्नी के बीच अलगाव पर चिता व्यक्त करते हुए उसकी जड़ 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में तलाशी है। वास्तव में इस अधिनियम में तलाक के लिए जो आधार बनाए गए हैं वे हिन्दू समाज की परंपरा से मेल नहीं खाते और नई जीवन शैली में इसका प्रावधान समाज को तोड़ने का आधार बन रहा है। मसलन, इसमें पत्नी के विाास को धोखा, निर्दय व्यवहार, परित्याग, आदि या पति द्वारा दुनियादारी से संन्यास लेने, मानसिक रोग, कुष्ट या अन्य छूत की बीमारियों के आधार पर तलाक लेने की बात है। दोनों की सहमति से तलाक लिया जा सकता है। तलाक के ये प्रावधान पश्चिमी कानूनों से उधार लिये गए हैं जो हमारी मानसिकता से मेल भी नहीं खाते। न्यायालय की यह टिप्पणी वाकई र्मािमक है कि हमारे दादा-परदादा भी मानसिक रोग से ग्रस्त होते थे लेकिन उनकी पत्नियां कभी उन्हें छोड़कर नहीं जाती थीं। वास्तव में परिवार हमारी अंत:शक्ति का मूलाधार रहा है। हिन्दू विवाह कानून उस मूलाधार पर आघात पहुंचाने की भूमिका अदा कर रहा है। न्यायालय की इस टिप्पणी में शायद अतिशयोक्ति दिखाई पड़े कि अब तो शादी होने के पहले ही तलाक के कागजात तैयार रखे जाते हैं ताकि समय आने पर उपयोग किया जा सके, लेकिन यह पश्चिम के प्रभाव से युवक-युवतियों की भयावह सोच को उद्घाटित करने वाला है। जिस ढंग से तलाक की संख्या बढ़ रही है वह वाकई चिताजनक है। अकेले जीने की प्रवृत्तिा का समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मानसिक और व्यावहारिक जीवन में इसके त्रासदपूर्ण परिणामों के अनुभव आए दिन सामने आते हैं। साधु-संतों और वैरागियों के अलावा एकल जीवन हमारी जीवन शैली का अंग नहीं था और न समाज की रचना ही उसके अनुकूल है। तलाक की पीडा केवल पति-पत्नी को ही नहीं भुगतनी पड़ती, उनका मूल परिवार भी इससे प्रभावित होता है, क्योंकि परिवार एवं रिश्तेदारी का भावनात्मक जुडाव अभी भी हमारे समाज की महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में कायम है। बच्चों के लिए तो तलाक वाकई एक त्रासदी ही साबित होता है। न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा है कि अंत में बच्चा ही कष्ट झेलता है। अगर वह लड़की है तो वह कष्ट और अधिक हो जाता है, खासकर तब जब लड़की की शादी का वक्त आता है। भारतीय परंपरा में पति-पत्नी के दूर रहने की अवस्था यानी विरह की पीडा पर न जाने कितनी मर्मस्पर्शी रचनाएं हैं और तलाक तो विरह को स्थायी बना देता है। प्रश्न है कि क्या न्यायालय की टिप्पणियों के मद्देनजर हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन कर तलाक के प्रावधानों को और कडा बनाने की पहल होगी? विवाह कानून का उद्देश्य विवाह प्रथा एवं परिवार परंपरा को सशक्त करना होना चाहिए। अगर यह विवाह प्रथा को ही मजाक बना रहा है एवं इसके प्रावधानों से परिवार परंपरा ध्वस्त हो रही है तो निश्चय ही इस पर पुर्निवचार होना चाहिए।

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