Sunday, July 20, 2008

असली गुनाह की पहचान

असली गुनाह की पहचान
महिला तथा बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी विजयी मुद्रा में होंगी। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने आखिरकार वेश्यावृत्ति के खिलाफ कानून में प्रस्तावित संशोधन पर सहमति की मुहर लगा दी है। इस प्रस्ताव पर दूसरे लोगों के अलावा खुद सरकार में शामिल मंत्रियों तथा सांसदों ने ऐतराज उठा दिए थे। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का कहना था कि यदि ग्राहकों को दंडित किया गया (जैसा कि मसविदा बिल में प्रावधान है) तो इस व्यवसाय में लगी महिलाओं की रोजी-रोटी का खतरा पैदा हो जाएगा। इस पर रेणुका चौधरी का तर्क था कि यदि इस व्यवसाय पर लगाम लगानी है तो सिर्फ महिलाओं पर कार्रवाई करना सही नहीं है क्योंकि ज्यादातर महिलाएं मजबूरियों के चलते या धोखे से इस पेशे को अपनाती हैं। विरोध का जो स्वर उठा उसमें एक अहम मुद्दा था इस व्यवसाय में लगी महिलाओं के लिए वैकल्पिक रोजगार तथा पुनर्वास के इंतजाम का। सरकार भी आश्वस्त नहीं थी कि वह इसे कहां तक पूरा कर पाएगी। जब विवाद बढ़ा तो मंत्रियों का एक ग्रुप गठित किया गया, जिसकी अगुआई होम मिनिस्टर शिवराज पाटील कर रहे थे। टीम के अन्य सदस्यों में शामिल थे कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर, अम्बुमणि रामदॉस और मीरा कुमार। यह टीम इस नतीजे पर पहुंची कि वेश्या को अपराधी नहीं, पीड़ित माना जाए तथा ग्राहक को कानून के दायरे में खींचा जाए और उसकी जवाबदेही तय हो। अनैतिक देह व्यापार में सबसे पहले नैतिक और अनैतिक की जो सीमा तय होती है, वह ध्यान देने लायक है। पुरुषों और महिलाओं के लिए नैतिकता के मानदंड अलग-अलग तथा गैरबराबरी वाले हैं। पुरुष अगर कोठे पर जाता है तो उसे माफ किया जा सकता है, लेकिन कोठे पर बैठने वाली महिला को पतिता कहा जाएगा। मौजूदा कानून में सारा दोष पेशा करनेवाली महिला पर आता है। प्रस्तावित बिल उसमें संशोधन करके कोठा मालिक या मालकिन तथा दलालों को निशाने पर लाता है। ग्राहकों को भी सजा के घेरे में लिया गया है। पुरुष, जो इस व्यवसाय में खरीदार है, हमेशा विवादों से परे रहा है। वेश्यावृत्ति की चर्चा में सिर्फ महिलाएं घसीटी जाती रही हैं। प्रस्तावित संशोधित कानून में मानव तस्करी के खिलाफ सख्त सुझाव हैं, जिसमें जुर्म साबित होने पर दस साल की सजा, एक लाख रुपये जुर्माना या संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है। मानव तस्करी को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। नाच-नौटंकी या देवदासी के नाम पर होने वाली खरीद-फरोख्त को भी इस कानून के दायरे में शामिल किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक हर साल सात से दस लाख लोगों की तस्करी होती है। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे होते हैं, जिनका यौन शोषण होता है। वेश्यावृत्ति के मसले पर जब भी समाज में बहस चलती है, तो वह इस सवाल पर ही केंद्रित हो जाती है कि वेश्यावृत्ति कानूनी होगी या गैरकानूनी। कुछ लोग चाहते हैं कि इसे एकदम खत्म कर दिया जाए, जबकि दूसरा खेमा पूरी छूट के पक्ष में है। लेकिन हमारे देश में असल मुद्दा है अपराधीकरण से मुक्ति का, जो हालात तस्करी की जमीन तैयार करते हैं या लोगों को इस जाल में फंसने के लिए मजबूर करते हैं उन्हें खत्म करने का। जब इस बिल पर पहली बार चर्चा शुरू हुई तो एक तबके की ओर से यह कहा गया कि अगर यह कानून बना तो इसके चलते इस पेशे पर असर पड़ेगा और बेरोजगारी की समस्या खड़ी होगी। बेरोजगारी वाकई हमारे देश की एक बड़ी समस्या है। वह सिर्फ बार बालाओं या यौन व्यवसाय में लगे लोगों का मसला नहीं है। बेरोजगार युवाओं की बड़ी फौज सड़क पर है। बेरोजगारी ने करोड़ों बच्चों को बाल मजदूर बनाया है और अस्सी साल का बुजुर्ग भी रिक्शा खींचता है। किसानों की आत्महत्या की खबरें किसने नहीं पढ़ी? लिहाजा बेरोजगारी के साथ इस मुद्दे को नत्थी कर देने से समस्या को संबोधित नहीं किया जा सकेगा। एक सवाल इच्छा का भी उठता है कि कोई स्त्री अपनी मर्जी से भी इस पेशे को अपना सकती है। निश्चित ही यह एक पहलू है लेकिन फिर यह जानना चाहिए कि इच्छा होने या न होने के भी कारण होते हैं। इच्छाएं अपने परिवेश में ही तैयार होती है, वे जन्मजात नहीं होतीं। हमारे परिवेश में स्त्री को सिर्फ 'देह' होने की और उसी में सीमित रह कर सोचने की सीख तरह-तरह से दी जाती है। वह अपने शरीर के मायाजाल में उलझी रहे तो पुरुष प्रधान समाज का फायदा ही है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसमें नए-नए आयाम जोड़े हैं। स्त्री भी खुद को या तो श्रद्धा की वस्तु समझती है या फिर पुरुषों का खिलौना। वह खुद को आकर्षण के केन्द्र में बनाए रखने की मानसिकता का शिकार हो जाती है, जबकि उसकी यह कोशिश पुरुष को केन्द्र में ला देती है। दूसरी तरफ औरत के माता होने को महिमा मंडित किया जाता है और इस तरह हर बात औरत को औरत बने रहने के लिए प्रेरित करती है। कुल मिलाकर देखें तो माहौल ऐसा है कि महिलाएं खुद अपनी क्षमताओं को नजरअन्दाज करना सीख जाती हैं। उनकी इच्छा की बात कर उन्हें देह में बदल दिया जाता है। इसे ही वर्चस्व की राजनीति कहते हैं, जिसमें पीड़ित खुद ही उत्पीड़क की इच्छा और मानसिकता से लैस हो जाता है। आज औरतों और बच्चों की तस्करी नशीले पदार्थों की तस्करी की तरह भारी मुनाफे वाला व्यवसाय बन गया है। देह व्यापार में लगी औरतों में साठ प्रतिशत नाबालिग बताई जाती हैं। इन बच्चियों की इच्छा कैसे पूछी जाती है इसका हम अंदाजा लगा सकते है। कई रिसर्च या सर्वे रिपोर्टें आ चुकी हैं जिनसे साबित होता है कि इस व्यापार में हालात के मारे लोगों की संख्या ही ज्यादा है। जो लोग पैसा फेंककर इन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं, वे भी कानून के शिकंजे में आएं, यह जरूरी था। प्रस्तावित कानून में यह इंतजाम किया गया है। लेकिन मर्दवादी मानसिकता से ग्रस्त रक्षक उसे कितना लागू करेंगे या दूसरों को लागू करने देंगे यह संदेह के घेरे में है। इस मामले में पुलिस की भूमिका पहले ही उजागर हो चुकी है। कानून तो बन जाएगा, लेकिन जाहिर है, बात वहीं पर खत्म नहीं होगी।

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