Sunday, July 20, 2008

बचपन और अपराध

बचपन और अपराध
जिस देश की कानून-व्यवस्था में अपने नागरिकों के प्रति कोई सम्मान का भाव न हो, जहां अमीरों के बड़े से बड़े अपराध के बावजूद उनकी सार्वजनिक गिरफ्तारी तक न होती हो और निरपराध होने के बावजूद गरीब अभियुक्तों को पूरी जिदगी जेल की सलाखों के पीछे गुजार देनी पड़ती हो, वहां किसी आरोपी या सजायाफ्ता व्यक्ति के बच्चों की स्थिति के बारे में सोचने की फुरसत भला किसके पास होगी। किसी भी सभ्य समाज के लोग इस सूचना से चकित हो जाएंगे कि भारत में ऐसे बच्चों की तादाद सैकड़ों में नहीं हजारों में है जिन्हें अपना पूरा बचपन जेल की सलाखों के पीछे सिर्फ इसलिए गुजारना पड़ता है कि उनकी मां किसी अपराध की सजा भुगत रही है, या सिर्फ उसपर किसी अपराध में शामिल होने का आरोप है। इससे कहीं बड़ी तादाद ऐसे बच्चों की है, जो माता-पिता में से किसी एक के या दोनों के ही जेल में बंद होते हुए जेल से बाहर अपना जीवन गुजारते हैं और अक्सर कच्ची उम्र में ही अपराध की गलियों में भटक जाते हैं। यही नहीं, इससे सैकड़ों गुना ज्यादा बच्चे जीवन में अपनी मेहनत, कौशल और बुद्धि के बल पर गुजारा करने का हौसला इस वजह से खो बैठते हैं कि माता-पिता के जिस संबल पर उनके पूरे मनोविज्ञान की बुनियाद रखी जानी होती है, वह बचपन में ही टूट-बिखर चुका होता है। कुछ वर्दीधारी अजनबी लोग अगर किसी बच्चे के सामने उसकी मां या बाप को पकड़कर उसकी अमानुषिक पिटाई करें तो इस संसार में अच्छाई के मूल्य पर उसकी कितनी आस्था रह पाएगी? शहरी मध्यवर्ग को इस वर्णन में शायद अतिरेक नजर आए, लेकिन गांवों-कस्बों में यह श्य आम हुआ करता है कि कच्ची शराब चुआने, शराब बेचने या चोरी-चकारी करने के जुर्म में पुलिस वाले किसी को पकड़ लेते हैं और भीड़ के सामने उसकी हड्डी-पसली एक करके समाज से ‘बुराई दूर करने का प्रयास’ करते हैं। अक्सर ऐसे मामले पकड़े गए व्यक्ति की माली हालत पर निर्भर करते हैं। जैसे ही वह कुछ हरे-हरे नोट पुलिस वालों तक पहुंचने का इंतजाम कर देता है, वैसे ही शक की सुई उसकी तरफ से हटकर किसी और दिशा में घूम जाती है। भारतीय पुलिस की दशा कैसे सुधारी जाए, इस बारे में तो शायद विधाता की भी अबतक कोई ठोस राय नहीं बन पाई होगी, लेकिन किसी आरोपित व्यक्ति को बचाने के लिए हाथ-पैर जोड़ने आई उसकी पत्नी या बहन के साथ थाने में बलात्कार न हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की पहल पर दो-तीन साल पहले कुछ उपाय किए गए हैं। ठीक ऐसे ही उपाय उन बच्चों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए भी किए जाने चाहिए, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि उनके मां-बाप को कुछ अनजान-अजनबी लोग घेरकर पीट क्यों रहे हैं और अपराध या दंड जैसी किसी चीज के बारे में रत्ताी भर भी समझ पैदा होने से पहले ही उनकी जिदगी की दिशा तय हो चुकी होती है। ऐसे मामलों में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा दिए गए दोनों सुझावों- बच्चों के सामने उनके माता-पिता से कोई पूछताछ न करने और बच्चों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए विशेष बाल पुलिस इकाई गठित करने- पर गंभीरता से अमल किया जाना चाहिए।

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