Friday, July 18, 2008

मुद्दा : समलैंगिकता और कानूनी स्वीकृति

29 जून2008 को देश की राजधानी दिल्ली में समलैंगिकों ने पहली बार प्रदर्शन कर अपने सम्बंधों को सामाजिक रूप से कानूनी स्वीकृति देने और धारा 377 खत्म करने की मांग की। इसी तरह का प्रदर्शन कोलकाता और बैंगलुरू में भी किया गया। गौरतलब है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 ‘अप्राकृतिक यौनाचार’ को गैर कानूनी और समलैंगिक को अपराधी घोषित करती है। इसके बावजूद देश में समलैंगिकों की तादाद बढ़ने के पीछे कौन से कारण हैं, उनका खुलासा होना बेहद जरूरी है। मनोचिकित्सक व यौन विशेषज्ञों के अनुसार होमो यानी समलैंगिक पुरूष और लैस्बियन यानी स्त्री समलैंगिक बनने के पीछे यौन सम्बंधी गड़बड़ियां प्रमुख कारण हैं। उन लड़कों में जिनमें लड़कियों के यौन हारमोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टोन निश्चित मात्रा से ज्यादा होते हैं, उनमें चाल-चलन, बोल-चाल, रहन–सहन व यौनेच्छाओं पर स्त्रीत्व की छाप ज्यादा दिखलायी देती है, वे ही समलैंगिक बनते हैं। उन लड़कियों में जिनमें पुरूषों के यौन हारमोन टेस्टोस्ट्रोन निश्चित मात्रा से ज्यादा पाये जाते हैं, वे लड़कियों के प्रति ज्यादा आकर्षित होती हैं। वे बचपन से ही ऐसी हरकतें करती हैं लेकिन माता-पिता उसे उनकी बाल सुलभ क्रीड़ाएं समझ ध्यान नहीं देते। ऐसी हालत में वे विपरीतलिंगी जैसी हरकतें करती हैं। आगे चलकर वे लैस्बियन बन जाती हैं। इसके अलावा जिन लड़के-लड़कियों के गुप्तांग विकसित नहीं होते, वे हीनभावना से ग्रस्त हो अक्सर समलिंगी से यौन सम्बंध बना लेते हैं। इसके पीछे उनकी मान्यता है कि यदि समय पर उनका शारीरिक व गुप्तांग का विकास नहीं हो पाया, उस स्थिति में विपरीतलिंगी का उनके प्रति न आकर्षण होगा न ही सेक्स के प्रति समर्पण। कुछ लड़के-लड़कियां ऐसी हैं जिनके माता-पिता अक्सर विपरीतलिंगी से बात करने तक की इजाजत नहीं देते और कुछ वे जो 13 साल से पहले ही सेक्स का अनुभव कर लेते हैं, वे समलैंगिकता के शिकार जल्दी हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे इसके आदी हो जाते हैं। प्रख्यात मनोचिकित्सक डा. जितेन्द्र नागपाल के अनुसार समलैंगिक पुरूष एक्टिव और पैसिव दो प्रकार के होते हैं। गुंडे, बदमाश, इलाके के दादा या पहलवान टाइप के ताकतवर लड़के एक्टिव कहलाते हैं जिन्हें अपने आतंक या शारीरिक बल के चलते सेक्स के मामले में दूसरे लड़कों को कष्ट पहुंचाने में आनंद मिलता है। पैसिव वे होते हैं जिनमें हर मामले में स्त्रीत्व सीमा से अधिक दिखाई देता है और जिन्हें सेक्स के दौरान दर्द सहने में ज्यादा आनंद मिलता है। एक भी दिन उनके साथ ऐसा न हो तो वे बेचैन हो जाते हैं। मनोचिकित्सक डा. अरूण गुप्ता के अनुसार ऐसे लोग अधिकतर जेल, पागलखाने, अनाथालय या होस्टलों में पाये जाते हैं। ऐसे युवक–युवती अपने ही घर में विपरीतलिंगी से बातचीत तक न करने वाले भय, निराशा और विपरीत सेक्स का अपने प्रति आकर्षण न होने के कारण अपने ही समलिंगी से शारीरिक सम्बंध बना लेते हैं। इस बारे में मनोचिकित्सक व प्रोफेसर डॉ. शेखर सक्सेना कहते हैं कि यह नया नहीं है, और न ही बीमारी है। यह सामाजिक–पारिवारिक हालातों से उपजी एक आदत, डर व हीनभावना है। इस वजह से ऐसे मामले आजकल तेजी से बढ़ रहे हैं।समाज में समलैंगिकों की स्थिति में पिछले डेढ़ दशक से काफी बदलाव आए हंै। अब वे अपनी खुली पहचान चाहते हैं जबकि पहले यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। पिछले आठ सालों में तो 18 से 24 साल के बहुतेरे समलिंगी जोड़े खुलकर सामने आए हैं और बहुतेरे आए–दिन सामने आ भी रहे हैं। अब वे अपने दुत्कार, बहिष्कार या घृणास्पद व्यवहार का पहले की अपेक्षा खुलकर सबके सामने आकर प्रतिकार करने लगे हैं और अपने बुनियादी अधिकारों की विभिन्न मंचों से मांग भी करने लगे हैं। वैसे तो देश में वह 1997 से ही अपने अधिकारों के लिए आंदोलनरत हैं लेकिन वर्ष 2004 में जनवरी माह में मुंबई में ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ के अवसर पर उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर समूचे देश को इस मुद्दे पर यह सोचने पर विवश किया कि अब अधिक दिनों तक उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। भले सरकार यह दलील देकर कि–‘समाज इस तरह के सम्बंधों को कतई मंजूर नहीं करता, इसलिए इसे किसी भी कीमत पर कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती’ उनकी मांग को सिरे से खारिज कर दे। लेकिन यह सर्वविदित है कि समलैंगिकता कोई नई बात नहीं है। उसी वर्ष बैंगलूर में ‘कामुकता, पौरूषता और संस्कृति’ विषय पर संपन्न दक्षिण एशियाई सम्मेलन पर समलैंगिकों की बडे़–बडे़ समूहों में मौजूदगी ने स्पष्ट कर दिया कि पुरूष या स्त्री समलैंगिकता, दोहरे सेक्स सम्बंधों पर व लिंग परिवर्तन करने वालों के बारे में मौन रहने का जमाना अब लद चुका है। इन मुद्दों पर बहस और गोष्ठी किए जाने की जरूरत समय की मांग है। इसे अपवाद मानकर परे नहीं धकेला जा सकता।

इतना नाराज क्यों है भारत

भारत डोगरा डेमोक्रेसी की एक बुनियादी मान्यता यह है कि शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों से बदलाव लाया जा सकता है। लेकिन फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि डेमोक्रेटिक देशों में हिंसक संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं? भारत में भी ऐसे कई आंदोलन चल रहे हैं, जैसे मध्य भारत में माओवादी आंदोलन, सरहदी इलाकों में अलगाववाद और जाति, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उठ खड़े होने वाले बखेड़े। अगर पिछले एक दशक में इन आंदोलनों से हुए जान-माल के नुकसान का हिसाब देखा जाए, तो लगेगा कोई भयानक जंग छिड़ी हुई है। श्रीलंका जैसे कई देशों में हालत कई गुना ज्यादा खराब है। पाकिस्तान और म्यांमार को बहुत समय तक तानाशाही झेलनी पड़ी है, इसलिए वहां हिंसक आंदोलनों की वजह को समझा जा सकता है। लोकतांत्रिक विकल्प न मिलने पर लोग हिंसा का रास्ता अपनाते ही हैं। तानाशाही के बरक्स इन्हें जायज ठहराने के तर्क जुटाए जा सकते हैं। लेकिन भारत और श्रीलंका में डेमोक्रेसी की इतनी लंबी और मजबूत परंपरा के बावजूद अगर हिंसक आंदोलन इतनी तेजी से फैल रहे हैं, तो इस ट्रेंड की गहराई से पड़ताल होनी चाहिए। इसकी वजहें मुख्य रूप से चार तरह की हैं। पहला, डेमोक्रेटिक सिस्टम में समस्याओं के सही समय पर शांतिपूर्ण हल की गुंजाइश तो है, लेकिन यह प्रक्रिया अभी मजबूत नहीं हो सकी है। गरीब तबके से प्रशासनिक तंत्र के अलगाव, करप्शन, इंसाफ में देरी और दूसरी जटिलताओं ने मिलकर ऐसा माहौल बना दिया है कि कमजोर तबकों की आवाज पर ध्यान ही नहीं जाता। वे जितने शांतिपूर्ण होते हैं, उतने अनसुने रह जाते हैं। उनकी मांगें मानने या न मानने से प्रशासन या शासन को कोई फायदा-नुकसान नहीं होता। इन तबकों को पार्टियां इलेक्शन से पहले कुछ राहत दिलाने की कोशिश करती हैं, लेकिन चुनाव के बाद स्थायी समाधान पर खास गौर नहीं किया जाता। कहना होगा कि सिस्टम की ये कमजोरियां असंतोष और विरोध के नए-नए मौके पैदा करती जाती हैं, क्योंकि नेक इरादों से शुरू की गई सरकारी योजनाएं इसकी बलि चढ़ जाती हैं। हिंसक आंदोलनों के बढ़ने की दूसरी वजह है लोगों में जोर पकड़ती यह धारणा कि किसी धमाकेदार घटना से ही उनकी समस्याओं पर सरकार का ध्यान जाएगा। वैसे भी जब सहज तरीके से लोगों को समस्याओं का जवाब हासिल नहीं होता, तो वे उग्रता की ओर झुकते हैं। यह जरूरी नहीं कि ये लोग हिंसा को स्थायी तरीका मानते हों, लेकिन उन्हें लग सकता है कि एक-दो बार हंगामा फायदेमंद होता है। लेकिन इसके बाद हालात इतने उलझ जाते हैं कि हिंसा का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस ट्रेंड का तीसरा कारण है राजनीति के विचलन। जाति, क्षेत्र और धर्म के मुद्दों को स्वार्थी सियासत के तहत इस तरह भड़काया जाता है कि कोई न्यायसंगत फैसला ले पाना मुश्किल हो जाता है। नदी जल के बंटवारे को लेकर कई बार ऐसे हालात बने हैं। इन मामलों में जान-बूझकर हिंसा भड़काई जाती है। मकसद होता है किसी खास वोट बैंक को अपनी तरफ मोड़ना। यहां डेमोक्रेसी ही डेमोक्रेसी की राह में आ जाती है। सरकार के लिए इन मामलों से निपटना बेहद मुश्किल होता है। अगर एक पक्ष की बात मानी जाए, तो दूसरा उग्र हो उठता है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिए जाने को लेकर छिड़ा विवाद इसकी बानगी है। और हद तो तब होती है, जब किसी मांग को माना ही न जा सकता हो। ऐसे में हिंसक मोड़ आए बिना नहीं रहता। इसकी मिसाल है रिजर्वेशन को लेकर होने वाले आंदोलन। हर जाति कोटा चाहती है, लेकिन सरकार के हाथ बंधे होते हैं। ये आंदोलन इस अहसास से पैदा होते हैं कि डेमोक्रेसी में कुछ भी कराया जा सकता है, बशर्ते आपके पास वोट हों। यह एक अजब स्थिति है, जहां डेमोक्रेसी की ताकत को कानून के राज से बड़ा समझ लिया जाता है। ऐसे विवाद आम तौर पर सुलझते नहीं और बरसों तक अपना असर दिखाते रहते हैं। हिंसा की चौथी वजह है आर्थिक स्वार्थ। हिंसा का अपना अर्थशास्त्र है और वह एक बड़ा बाजार पेश करती है, खास तौर से उन लोगों को जो हथियारों का व्यापार करते हैं। नशे की सौदागरी भी हिंसक संघर्षों को हवा देती है। यह एक ग्लोबल खेल बन जाता है, जिसे अपराधी गिरोहों से मदद मिलती है। किसी आंदोलन की वजह से हथियारों का चलन शुरू होता है, लेकिन हथियारों का यह चलन भी नई हिंसा को जन्म दे सकता है। हथियार जबरन वसूली का जरिया बन जाते हैं। देश के कई हिस्सों में ऐसा हो रहा है, जहां सरकारी विभागों तक से टैक्स वसूला जाता है। इसके अलावा दुश्मन देश की एजेंसियां आंदोलनों के लिए पैसा मुहैया कराती हैं और उन्हें ज्यादा से ज्यादा हिंसक होने के लिए उकसाती हैं। इन तमाम वजहों से हमारे देश में हिंसक संघर्ष बढ़ रहे हैं। अगर हम इन्हें खत्म करना चाहते हैं, तो हमें शुरू से ही शुरुआत करनी होगी, यानी कमजोर लोगों के असंतोष को सुनना सीखना होगा। इस असंतोष को एक संवेदनशील शासन सही नीतियां अपना कर दूर कर सकता है, लेकिन इसके लिए इच्छा होनी चाहिए। भूमिहीन, पिछड़े और बेदखल लोगों का खयाल रखा जाए, उन्हें उनका हक हासिल हो और रोजगार मिले, तो हिंसा की बहुत सारी गुंजाइश खत्म हो जाएगी। यही तबका है, जिसके असंतोष पर हिंसा की राजनीति और अर्थशास्त्र पलते हैं। अगर यह भरोसा जाग जाए कि डेमोक्रेसी उनकी सुनती है, तो वे दूसरों के हाथों का खिलौना नहीं बनेंगे। असल में सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं है और हर कार्यक्रम इसी तबके के लिए शुरू किया जाता है, लेकिन दिक्कत अमल की है और वह पिछले साठ बरसों से बनी हुई है। हमें प्रशासन का एक नया ढांचा चाहिए, जो लोगों की बात सुनता हो, जिसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और जो करप्शन से आजाद हो। करप्शन अकेली ऐसी बुराई है, जो सारे सिस्टम को तबाह कर देती है। यह हर बुराई की मां है और कमजोर लोगों में नाइंसाफी का भाव पैदा करता है। इसका मुकाबला करने में नागरिक संगठनों का बड़ा रोल होना चाहिए और सरकार को इसे मान्यता देनी चाहिए। उन्हें प्रशासन का दोस्त समझा जाए।