Sunday, July 20, 2008

घर-घर की कहानी में ज़ुल्म का चेहरा

सास और बहू के किस्से तो हमारे देश में हर किसी की ज़ुबान पर रहते हैं। इस रिश्ते की उलझनों ने पौराणिक दर्जा हासिल कर लिया है। लेकिन यह किस्सा इतना सीधा नहीं है। इसमें एक और पात्र शामिल है- ननद। यूपी की एक अदालत में चल रहा मामला इस लिहाज़ से गौरतलब है। मिर्ज़ापुर की अदालत में दहेज हत्या के एक मामले की सुनवाई चल रही थी। शादी के एक बरस के भीतर लड़की की मौत हो गई। दहेज उत्पीड़न का जो आरोप ससुराल वालों पर लगा, उसमें ननद की भूमिका सबसे ज़्यादा बताई गई। इधर आंकड़े भी इसी तरह की बात कह रहे हैं। पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिला उत्पीड़न में हमउम्र महिलाएं ज़्यादा दोषी पाई गईं। यूपी पुलिस के पूर्व महानिदेशक के. एल. गुप्ता का कहना है कि इसकी वजह टीवी सीरियल हैं, जिनमें ननद को ताकतवर रोल में दिखाया जाता है। यूपी के क्राइम रेकॉर्ड के मुताबिक दहेज हत्या के आरोप में जिन 1069 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया, उनमें 488 यानी 45 पर्सेंट की उम्र 18 से 30 बरस के बीच थी। 45 से 60 बरस के बीच की आरोपी महिलाओं की तादाद 205 यानी 19 पर्सेंट थी और इससे उम्रदराज़ महिलाओं की तादाद सिर्फ तीन। यही बात दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी देखी जा सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक कुल गिरफ्तार 3189 महिलाओं में 18 से 30 बरस की 1296 (40 पर्सेंट), 30 से 45 बरस की 1327 (41 पर्सेंट) और 45 से 60 की 544 (19 पर्सेंट) थीं। इससे ज़्यादा उम्र की महिलाओं की संख्या सिर्फ 13 थी। स्टेट क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के एस.पी. जयनारायण सिंह का कहना है कि दहेज उत्पीड़न में ननद के साथ जेठानी की भूमिका भी पाई गई है। साइकॉलजिस्ट हरजीत सिंह का कहना है कि उनके पास भी ननदों द्वारा सताई गई महिलाएं आती हैं। ननदों को भाई और मां से समर्थन हासिल होता है। हर जेल में दहेज हत्या की आरोपी महिलाएं कैद हैं। वैसे यह किस्सा पुराना हो चुका है कि परिवार में आई नई सदस्य को पुरानी सदस्यों के हमले झेलने पड़ते हैं। दहेज, बेटा पैदा करने का दबाव और कई बहाने हैं, जो हिंसा में बदल जाते हैं। यह कहावत शायद ही किसी ने नहीं सुनी होगी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। हमें यहां कुछ मामलों पर विचार करने की ज़रूरत है। जब बहुओं को दहेज के लिए तंग किया जाता है या मार डाला जाता है, तब उनका पति क्या कर रहा होता है? क्या उसकी सहमति के बिना ही मां और बहन उसकी पत्नी को सताते हैं? ज़ाहिर है, यह सब उसकी रज़ामंदी से ही होगा। हमारे पुरुष प्रधान समाज में मां अपने बेटे से ताकत हासिल करती है और बहन भाई से। अगर उसकी सहमति न हो तो इनकी क्या मज़ाल कि चूं भी करें। आमतौर पर पुरुष उदासीन बना रहकर अपना उल्लू सीधा करता है। मां उसका खयाल रखती है, बहन उसकी सेवा करती है और पत्नी तो है ही दासी। चुप रहने का फायदा उसे मिलता है, इस तरह वह घर के अंदरूनी झगड़ों को सास, बहू, ननद या औरतों का लफड़ा बताकर बेमतलब या तुच्छ ठहरा देता है और किसी भी नैतिक दबाव से आज़ाद होकर चैन की ज़िंदगी जीता है। यह एक शातिर चाल है, जो उत्पीड़न का जाल रच देती है। इसमें हमारे समाज की वे औरतें शामिल हैं, जो पितृसत्ता की सोच को किसी मशीन की तरह अपना लेती हैं। इसमें वह पुरुष शामिल है, जिसकी सोच आमतौर पर यही है कि पत्नी को हर हाल में परिवार में खप जाना चाहिए। इस माहौल में शादी का मतलब दो व्यक्तियों का पार्टनर बनना नहीं है। यह एक पारिवारिक दायित्व है और परिवार पितृसत्ता का सबसे बड़ा औज़ार बना हुआ है। ज़रा ननदों के पुरुषवादी रोल पर गौर कीजिए। अगर वे शादीशुदा हैं, तो ससुराल में खुद उत्पीड़ित हो सकती हैं। लेकिन मायके में वे मां-बाप और भाई के बीच खुद को सत्ता संपन्न महसूस करने लगती हैं। यह एक भ्रमजाल ही होता है, क्योंकि अगर वे मायके में आकर बसना चाहें, जायदाद में अपना हिस्सा मांगें या भाई के बराबर हकों की मांग कर बैठें, तो असल सत्ता उसे भी दूध की मक्खी की तरह छिटक देगी। लेकिन इस सचाई का अहसास उसे नहीं होता। इसकी वजह क्या है? असल में पितृसत्ता की हकीकत को लांघ पाना लड़कियों के लिए मुश्किल होता है। वे आसान रास्ता चुनती हैं और चुपचाप चलती रहती हैं। चाहे वह कोई भी हो, परिवार की महिला सदस्य के निजी अधिकार क्या हैं? निजी अधिकारों का सम्मान हमारे परिवारों की बुनियाद में ही नहीं है। हमारी परंपरा में राखी और करवा चौथ जैसे त्योहार भाइयों और पति पर गौरव करने की सीख देते हैं। वह औरत धन्य है, जिसके भाई हैं। तब वह औरत भाई की पत्नी पर भी रौब जमाएगी। इसी तरह वह औरत भी धन्य है, जिसका पति है। तब वह औरत उस औरत को कमतर ही समझेगी, जो अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा है। यही है पितृसत्ता का खेल, जिसमें पुरुष के पास सूरज की तरह रोशनी होती है। महिलाएं उससे रोशनी पाकर, छीनकर, लूटकर या मांगकर खुद को रोशन करती रहती हैं। शादीशुदा लड़कियां इसे अपनी ज़िम्मेदारी मानती हैं कि माता-पिता को प्यार दें। लेकिन अगर उन्हें साथ रखने या आर्थिक सहयोग की ज़रूरत पड़े, तो वे इसे भाइयों का फर्ज़ समझती हैं। अगर बराबरी की ज़िम्मेदारी नहीं है, तो बराबर की हैसियत भी नहीं होगी। इसीलिए स्त्री समुदाय को ताकतवर बनाने के लिए ज़रूरी है कि उधार की ताकत उनके पास न हो। वे खुद पर भरोसा करना सीखें और काबिलियत हासिल करें। तब वे पति या भाई पर नाज़ करके रह जाने की बजाय बराबरी के रिश्ते बनाएंगी। तब उन्हें यह भी समझ आएगा कि भाई या बेटे की पत्नी का अपना वजूद है, जिसे छीना नहीं जाना चाहिए। इसी तरह बहू भी फिल्मी किरदारों की तरह यह नहीं सोचने लगेगी कि घर में आते ही चाबी उसे मिल जानी चाहिए। वह इस चाबी से सत्ता का राजपाट हासिल करने का झूठा ख्वाब छोड़कर अपनी तिजोरी तैयार करना चाहेगी। असली मुद्दा यही है कि हमारा समाज हर लड़की को बराबर की नागरिक बनाए।

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