Monday, September 22, 2008

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

मुद्दा : भिक्षावृत्ति पर लगे लगाम

bhikariyo के प्रति समाज ही नहीं, सरकारों का रवैया भी अछूतों-सा है। इनके सुधार की बनी योजनाएं फ्लॉप हैं। सरकार ने भिक्षावृत्ति पर पाबंदी तो लगाई, किंतु उसने कभी भिखारियों के संबंध में अध्ययन कराना जरूरी नहीं समझा। यही कारण है, सरकार के पास इनकी आबादी तथा सामाजिक ढांचे के संबंध में कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। लोकसभा में सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार ने स्वीकार किया कि भिखारियों की संख्या के संबंध में कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। इनके संबंध में सारे अध्ययन गैर सरकारी संगठनों या स्वायत्त निकायों के जरिए ही सामने आए हैं। यह हालत तब है जब दुनिया में सबसे अधिक भिखारी भारत में हैं। यहां प्रत्येक हिस्से की सार्वजनिक जगहों पर ये दिख जाते हैं। जितने अधिक भिखारी बढ़े हैं, उसी अनुपात में भीख मांगने के तरीकों में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। आज के भिखारियों में बहुमत अपंग और बहुत गरीब लोगों की नहीं, बल्कि पेशेवर भिखारियों की है। जो मजबूरन भिखारी बनते हैं, उनके लिए कैसी व्यवस्था की जाए? इस संबंध में सुश्री मीरा कुमार इसे राज्य का विषय बताती हैं। ऐसा नहीं है कि राज्यों ने कुछ प्रयास नहीं किए, किंतु यह अधूरे मन से किए गए हैं। दिल्ली सरकार ने भीख देने वालों पर भी जुर्माने का फैसला किया, फिर भी असर नहीं हुआ। इसी तरह मुलायम सिंह के दौर में उ. प्र. में भिखारियों के सर्वेक्षण और पुनर्वास का निर्णय लिया था। सरकार द्वारा ‘भिक्षुक गृह’ खोले गए, किंतु सड़कों पर भिखारियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। कारण, भिखारियों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था का ठीक न होना था। रोजगार की ठीक व्यवस्था के बगैर भिखमंगों को उनके व्यवसाय से हटाना कतई संभव नहीं है, यह बात सरकार अब भी नहीं समझ रही है। दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क के मुताबिक, दिल्ली में 60 हजार भिखारी हैं। ‘एक्शन एड’ द्वारा चार साल पहले किए गए अध्ययन के मुताबिक मुंबई में तीन लाख भिखारी थे। इसी तरह बेगर रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, कोलकाता में 75 हजार से ज्यादा भिखारी हैं। इन भिखारियों में अपंग, गरीब, शौकिया और हताशा व निजी कुंठाग्रस्त मॉडल गीतांजलि नागपाल तथा आईआईटी इंजीनियर प्रफुल्ल चिपलुणकर जैसे लोग भी हैं! डीएसएसडब्ल्यू की रिपोर्ट बताती है कि कई ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट भिखारी भी हैं। ये अपनी मासिक आय बढ़ाने के लिए केवल सप्ताहांत में भीख मांगना पसंद करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली के 71 फीसद भिखारी गरीबी की वजह से भीख मांग रहे हैं, किंतु 66 प्रतिशत भिखारी शारीरिक रूप से तंदुरूस्त हैं। कई भिखारी तो ऐसे हैं, जो अब भिक्षावृत्ति को मजदूरी के विकल्प के तौर पर या इसे बेहतर मानकर अपनाए पड़े हैं। अध्ययन बताता है कि ज्यादातर भिखारियों की प्रतिदिन की औसत आय 90 रूपये से अधिक है, जो दिहाड़ी मजदूरों की आय से कहीं ज्यादा है। ज्यादातर भिखारी अब अपने काम को लेकर शर्म का अनुभव नहीं करते। वे इस वृत्ति को लाभदायक पेशा मानते हैं। डीएसएसडब्ल्यू और मुंबई के सोशल डेवलपमेंट सेंटर के सर्वेक्षण बताते हैं कि भीख मांगने वाले अब शर्माते नहीं, लेकिन यह अध्ययन पूरी सच्चाई बयान नहीं करते। डॉ. योगेश ठक्कर का अध्ययन कुछ अलग ही तस्वीर सामने लाता है। इसके अनुसार भिखारियों में मनोरोग का पाया जाना आम है। कई तरह की लतों का शिकार होना, अपराध-बोध जैसी समस्याएं भी इनमें खूब देखी जाती हैं। दरअसल, भीख मांगने का काम शौकिया हो या मजबूरी- समाज के लिए मंगतों की मौजूदगी सही तस्वीर पेश नहीं करती। भीख मांगना पारंपरिक रूप से भले ही सम्मानजनक पेशे की तरह भारतीय समाज में मौजूद हो, किंतु आज जीवनयापन का यह तरीका स्वीकार्य नहीं है। ‘भिखारी’ का अर्थ कानून की भाषा में सर्वथा पृथक है। कानून ऐसे व्यक्ति को भिखारी मानता है, जो गरीब जैसा दिखता हो। भिखारियों को अधिकतम दस वर्ष तक भिक्षुक गृहों में डालने का प्रावधान है। अमूमन इस कानून का दुरूपयोग होता है। विरोधी कहते हैं कि इस कानून के जरिए सरकार शहरों से गरीबों के सफाए की मुहिम चलाती है ताकि शहर अमीरों का बना रहे। इस कारण होता यह है कि भिखारियों के खिलाफ चलाए जाने वाले किसी भी अभियान के लपेटे में कूड़ा बीनने वाले से लेकर दिहाड़ी मजदूर तक आते हैं। सरकार को चाहिए कि भिखारियों का एक प्रामाणिक अध्ययन कराए। मजबूरीवश भिखारी बने लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने का कोई ढांचा विकसित करने तथा जो लोग रोजगार के अभाव में इस पेशे को अपनाते हैं, उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करने का प्रयास होना चाहिए। भिक्षुकगृहों में सरकार रोजगार की ट्रेनिंग का पुख्ता बंदोबस्त करे। भिखारियों के मनोविज्ञान का अध्ययन एवं उनके मनोवैज्ञानिक इलाज के उपायों पर भी गौर करना होगा।

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