Thursday, July 24, 2008

क्या साथ रहना शादी के बराबर है


महिलाओं के इम्पावमरमेंट के लिए लगातार कानून बन रहे हैं। भारतीय समाज में महिलाओं की जो दशा रही है, उसे देखते हुए इनकी जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह कोशिश संतुलित होनी चाहिए। देखा गया है कि अच्छे मकसद से बनाए गए कुछ कानून समाज को तोड़ने वाले साबित हो रहे हैं। दहेज़ कानून के गलत इस्तेमाल पर काफी चर्चा हो चुकी है। घरेलू हिंसा से महिलाओं के बचाव के कानून पर भी सवाल उठने लगे हैं। अब राष्ट्रीय महिला आयोग की इस सिफारिश पर विवाद शुरू हो गया है कि सीआरपीसी की धारा 125 में सुधार किया जाए, ताकि किसी पुरुष के साथ लंबे समय तक सहजीवन करने वाली महिला को भी पत्नी की तरह गुज़ारा भत्ता मिल सके। अभी इस धारा के तहत केवल पत्नी, बच्चों और मां-बाप को यह हक हासिल है। आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि अलग हुई या तलाकशुदा महिलाओं को भी नए शारीरिक संबंध बनाने के आधार पर गुजारा भत्ते से वंचित नहीं किया जाए। आयोग का कहना है कि तलाक के 70 फीसदी मामलों में महिलाओं पर ऐसे आरोप लगाए जाते हैं, ताकि उन्हें गुजारा भत्ता न देना पड़े। सहजीवन के आधार पर गुज़ारा भत्ता देने की सिफारिश के पीछे तर्क यह है कि घरेलू हिंसा कानून में इसे मान्यता दी गई है और इसके साथ अन्य कानूनों को सुसंगत बनाना जरूरी है। घरेलू हिंसा कानून में पत्नी के साथ-साथ वैसी महिला को भी सुरक्षा दी गई है जो किसी पुरुष के साथ लम्बे समय से रह रही हो। सहजीवन की अवधारणा कोई नई नहीं है और बहुत हद तक कानूनों में भी इसे मान्यता प्राप्त है। सन 1927 में ही प्रिवी काउंसिल ने ए. डिनोहैमी बनाम डब्ल्यू.ए. ब्लैहैमी मामले में यह व्यवस्था दी थी कि अगर एक महिला किसी पुरुष के साथ प्रामाणिक तौर पर पत्नी की तरह रह रही है, तो कानून उसे वैवाहिक रिश्ते की तरह ही मानेगा, रखैल की तरह नहीं, जब तक कि सबूत इसके खिलाफ न हों। दो साल बाद इससे आगे बढ़ते हुए काउंसिल ने मोहब्बत अली बनाम मोहम्मद इब्राहिम खान केस में स्पष्ट निर्णय दिया कि यदि कई बरसों तक स्त्री-पुरुष साथ रह रहे हों तो कानून की नजर में वह विवाह माना जाएगा। परंतु इसमें यह साफ नहीं है कि इसके लिए न्यूनतम कितने बरसों का साथ जरूरी है। इसके 23 बरस बाद 1952 में सुप्रीम कोर्ट ने गोकल चंद बनाम प्रवीण कुमारी केस में प्रिवी काउंसिल की व्यवस्था को दोहराया, परंतु यह जोड़ दिया कि यदि सहजीवन का प्रमाण खंडन योग्य है तो सहजीवन की वैधता की कोई गारंटी नहीं होगी। फिर 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने बदरी प्रसाद मामले में सहजीवन को वैध विवाह की मान्यता दी और उन अफसरों को कोसा जिन्होंने 50 बरसों से साथ रहे दंपती के रिश्ते पर सवाल खड़े किए। गत 17 जनवरी को कोर्ट ने फिर ऐसी ही व्यवस्था दी। यह आज की हकीकत है कि सहजीवन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। और संबंध विच्छेद होने पर स्त्रियों को परेशानी भी काफी उठानी पड़ती है। इसलिए 2002 में सविताबेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में सुधार की सिफारिश की थी। भारतीय उत्तराधिकार कानून में भी अवैध बच्चों को अधिकार दिया गया है, परंतु स्त्री को नहीं। लेकिन सहजीवन को कानूनी मान्यता देना वर्तमान कानूनों के खिलाफ जाएगा। घरेलू हिंसा कानून में इसे मान्यता देने का मतलब इसे वैधता देना नहीं है, क्योंकि वहां मकसद महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकना है, चाहे वे पत्नी हों या केवल साथ रह रही हों। इसलिए यह तर्क सही नहीं लगता कि अन्य कानूनों का घरेलू हिंसा कानून के साथ तालमेल बिठाया जाना चाहिए। हिन्दू विवाह अधिनियम में किसी हिन्दू की एक से ज्यादा शादियों को अवैध करार दिया गया। काफी विरोध के बीच यह कानून बना था। फिर भी ऐसे मामले कम नहीं हैं, जहां पुरुष एक से ज्यादा शादियां करते हैं। इसे चैलंज करने का हक सिर्फ वैध पत्नी को है, लेकिन बहुत सी महिलाएं समाज और परंपरा के नाम पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटातीं। ऐसे में अगर सहजीवन में भी गुज़ारा भत्ते का प्रावधान कर दिया गया, तो यह विवाहेतर संबंध को मान्यता देने की तरह होगा। पुरुष निडर होकर ऐसे रिश्ते बनाने लगेंगे और सामंती युग लौट आएगा। इससे विवाह की संस्था पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी। सहजीवन वैसे लोग पसंद करते हैं जो गृहस्थी या सेक्स का सुख तो चाहते हैं, लेकिन उससे जुड़ी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। यह सही है कि वयस्क पुरुष और स्त्री को यह फैसला करने का हक है कि वे विवाह के बंधन में बंधकर साथ रहना चाहते हैं या उसके बिना उन्मुक्त होकर। महान फ्रांसीसी लेखक ज्यां पॉल सार्त्र और महिलावादी लेखिका सिमोन द बुआ ने शादी की जगह सहजीवन को ही चुना। अभी मारिया गोरेट्टी, कमल हासन, सुष्मिता सेन, विक्रम भट्ट, लारा दत्ता जैसी मशहूर हस्तियां इसका उदाहरण हैं। लेकिन परंपराओं को तोड़ने वाले गुजारा भत्ते के मामले में परंपरावादी क्यों हो जाते हैं? अब सहजीवन को वे महिलाएं चुन रही हैं जो आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर नहीं हैं। सहजीवन का प्रचलन पश्चिम में दूसरे वर्ल्ड युद्ध के बाद शुरू हुआ। इसकी वजह थी युद्ध की भयावहता से मजबूत विक्टोरियन मूल्यों का टूटना। युद्ध से पीड़ित लोगों ने सेक्स और भौतिक सुख को स्वच्छंद रूप से अपना लिया। कई लोगों को लगा कि बिना शादी साथ रहना सुविधाजनक और किफायती है। उनके लिए एक कानूनी बंधन के रूप में शादी की कोई अहमियत नहीं थी। भारतीय समाज ने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि यहां विवाहपूर्व सेक्स आज भी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन आज भारत में भी सहजीवन बढ़ रहा है। इसके उलट पश्चिमी देशों में अब 'बैक टु बेसिक्स' की बात की जा रही है और भारत की नज़ीर पेश की जाती है। अमेरिका से प्रकाशित 'द जर्नल ऑफ मैरिज एंड द फैमिली' ने अपने अध्ययन में पाया कि गैर-पारम्परिक रिश्तों में समस्याएं काफी ज्यादा होती हैं। जब अमेरिका की यह स्थिति है तो भारत की कल्पना की जा सकती हैं।

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